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स्या क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
पर नोल-पोतावि में भो परस्पर अभेद हो जाने से उनको भिन्नस्वभावता का लोप हो जाने के कारण नोलपीलादि विविध रूपात्मक चित्रता की सिद्धि नहीं होगी।
इस पर दियः शमी - स रीति से चित्रता में बाह्यार्थधर्मता का निषेध करने पर सुख-दुखादि में भी ज्ञानधर्मता का निषेध हो जायगा, क्योंकि उन्हें एक ज्ञान का धर्म मानने पर उनके स्वभावभेद का लोप हो जायगा, भिन्न ज्ञान का धर्म मानने पर उनमें एकनिष्ठता के व्यवहार को अनुपपत्ति होगी, अतः सुख-दुःखादि में ज्ञानधर्मता सिद्ध न होने से उनमें ज्ञानात्मकता की सिद्धि न हो सकेगो"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि सुख-दुःखादि को विभिन्न ज्ञान का धर्म मानकर ज्ञानात्मक सिद्ध किया जा सकता है और सुख-दुःखादि में एकनिष्ठता के व्यवहार को उपपत्ति भी सन्तान को एकता के आधार पर की जा सकती है। दूसरी बात यह है कि सुख-दुःखादि में ज्ञानास्मकता केवल ज्ञानधर्मता से ही नहीं सिद्ध होतो अपितु ज्ञान भिन्न हेतु से अजन्य होने के कारण भी उनकी ज्ञानात्मकता सिद्ध होती है।"
तदसत-बाह्यस्यापि द्रव्यस्य चित्रपर्यायात्मकस्याऽशक्यविवेचनत्वेन चित्रैकरूपताया दुरपह्नवत्वात्, अन्तर्विज्ञानात् तदाकाराणामिव वहिप्पुद्गलादे रूपादीनामशक्यविवेचनत्वात् । "मणिसमूहे 'पद्मरागोऽयम्' 'चन्द्रकान्तोऽयम्' इत्यादिपृथग्बुद्धिरूपं विवेचनमस्त्येवेति" चेत ? नीलाधाकार कज्ञानेऽपि 'नीलाकारोऽयम्' 'पीताकारोऽयम्' इति विवेचनं किं न प्रतीतम् ? । 'चित्रप्रतिभासकाले नेहग विवेचनम् , पञ्चासु नीलाद्याभासानि ज्ञानान्तराण्यविद्योदयाद् विवेकेन प्रतीयन्त' इति चेत् ? तर्हि मणिराशिप्रतिभासकाले पद्मरागादिविवेचनमपि नास्त्येव, पश्चात्तु तत्प्रतीतिरविद्योदेयादिति शक्यं वक्तुम् । 'मणिराशेदेशभेदेन विभजनं विवेचनमि'ति चेत् ? न, एकमण्याकारेषु तदभावात् । 'मणेरेकस्य खण्डने तदाकारेषु देशविभजनमस्त्येवेति चेत् ? ज्ञानस्याप्येकस्य बुद्धथा खण्डने तदस्त्येव । 'बुद्धथन्तरण्येव तत्खण्डने तानी ति चेत् ! पराण्येव मणिखण्डने मणिखण्डद्रव्याणि तानीति समानम् 1 'चित्रज्ञानं विवेचयार्थे पततीति तदविवेचनमिति चेत? एकत्वपरिणतव्याकारान् विवेचयन् नानाद्रव्याकारेषु एततीति तदविवेचनं तुल्यम् ।
[ एक चित्र ज्ञान की कल्पना असंगत-उत्तर पक्ष ) इस प्रकार ज्ञान के ग्राह-ग्राहक उभपाकारता पक्ष को कतिपय विज्ञानवादियों के मतानुसार उपस्थित कर व्याख्याकार ने उसको आलोचना करते हुये यह कहा है कि उक्त प्रकार से नील. पीतादि एक नियत आकार में अशक्य विवेचन होने से नोल-पोतादि विविधाकार एक चित्र ज्ञान की कल्पना कर ज्ञान के ग्राह्य-ग्राहक उभयाकारता का समर्थन करना असङ्गत है। क्योंकि उक्त प्रकार से चित्र पर्यायात्मक बाह्यद्रव्य का अंगीकार करके अशक्यविवेचन होने से उसकी एक चित्रद्रव्यरूपता का अपलाप दुष्कर होगा । क्योंकि, जैसे चित्राकार आन्तरविज्ञान से उसके प्रतिभास काल में नील पोतादि एक एक प्राकार का विवेचन अशक्य होता है उसीप्रकार चित्रात्मक द्रध्य से बाह्य पुद्गलादि के रूपादि का भी विवेचन प्रशश्य होता है ।