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स्वार्ताः स्त०५ श्लो०१८
दोनों स्वभाव का निषेध कर देने पर तृतीय सद्भाव का कोई सद्भाव न होने से ज्ञान निःस्वभाव हो जायगा। जिसके परिणामस्वरूप ज्ञान असत् हो जायगा । क्योंकि शविषाण के समान नि.स्वभाव हो जाने पर उसकी सत्ता किसी भी प्रकार सम्भव न हो सकेगी।
शान के विषय में विज्ञानवादी के उक्त तृतीय विकल्प का जैनों को प्रोर से यह निराकरण सुनकर विज्ञानवादी कतिपय विद्वानों की प्रोर से कुछ विरोघ उपस्थित किया जा रहा है।
[नियत एकाकार ज्ञान का उपादान चित्राकार एक दर्शन ] उन विद्वानों का मत यह है कि-चित्राकार में प्रतिभासित होने वाली एकमात्र बुद्धि की हो पारमार्थिक सत्ता है । अर्थात विश्वाफार ज्ञान ही परमार्थ सत है उसी से नियत एकाकार ज्ञान का जन्म होने से संसार के विभिन्न व्यवहारों को उपपत्ति होती है। इस मत को उपस्थित करते हुए व्याख्याकार ने यहां एक प्राचीन कारिका का उल्लेख कर उसकी देवेन्द्रकृत व्याख्या को प्रस्तुत किया है, जो इस प्रकार है -चित्राकार जान में जो नोलावि अघासित होता है वह ज्ञान की उपाधि है अर्थात् ज्ञान का विशेषण है जो ज्ञान का आत्मभूत है । तथा वह अनन्यभाफ है अर्थात् ज्ञान के समान हो ज्ञानस्वभावत्व से अन्य कोई स्वभाव का आश्रय नहीं है । अत: ज्ञानस्वभाव भूत नीलादि जब चित्राकारदर्शन में प्रतिभासित होता है तब अपने से अन्य प्रतिभासमान पीतादि से विविक्त होकर केवल अपने आकार में नहीं देखा जा सकता, क्योंकि चित्राकार ज्ञान में जब वह प्रतिभासित होता है तो पीतावि अन्य सभी आकार के चित्राकार ज्ञानस्वरूप होने से उन आकारों का भी उसी ज्ञान के द्वारा अविविक्तरूप से भान होता है। इसलिये यह मानना आवश्यक होता है कि प्रमाता को नोलेतर पीतादि से नील को विविक्त रूप में ग्रहण करने वाला 'अयनोल:' इसप्रकार अन्य ज्ञान जब उत्पन्न होता है उसी समय प्रमाता नील को पीतादि से विविक्ताप में ग्रहण करते हये चित्राकार ज्ञान को ग्रहण नहीं करता. क्योंकि उक्त विवेचनात्मक ज्ञान चित्राकार ज्ञानस्वरूप नहीं होता । अत: उसमें उसका ग्रहण सम्भव नहीं होता। क्योंकि ज्ञान अपने स्वरूप को तथा अपने नियताकार को हो ग्रहण करता है। उक्त चित्राकार ज्ञान उसका न प्राकार होता है, न उसका स्वरूप है। अतः वह ज्ञान चित्राकार ज्ञान के ग्रहण में प्रवृत्त न होकर उस ज्ञान के एक अर्थ-प्राकार-नील के हो ग्रहण में प्रवृत्त होता है । निष्कर्ष यह है कि चित्राकारज्ञान के प्रतिभास के समय एक प्राकार का प्रतिभास होने पर सब का प्रतिभास होगा अथवा किसी का भी प्रतिभास नहीं होगा। अतः चित्राकार दर्शन में नीलादि का पीतादि विविक्तरूप में प्रतिभास अशक्य है। फलित यह हआ कि चित्राकार एक ज्ञान में नीलपीताधि नाना प्राकारों का समावेश होने पर भी नोल-पीतादि नियताकार को ग्रहण करने वाले विवेचनात्मक ज्ञानों से नोल-पीतादि का नानात्व सुरक्षित रहता है । अतः किसी एक में ग्राह्य-ग्राहक जमय श्राकार का समावेश होने पर उभयत्व के विरोध का आपादन कर के जो ज्ञान के ग्राह्म-ग्राहक उभयाकारतापक्ष का निराकरण किया गया वह उचित नहीं है । यदि इसके विरुद्ध यह कहा जाय कि-"चित्रता ज्ञान का धर्म नहीं है किन्तु बाह्य अर्थ का धर्म है"-तो वह ठीक नहीं है क्योंकि नील-पीतादि स्वरूप चित्रता को अवयवो के साथ भेद और अभेद दोनों ही रूप में उपपत्ति नहीं हो सकती। आशय यह है कि चित्रता-नीलपीतादि रूपों को एक अवयबी द्रव्य से भिन्न मानने पर एक चित्रात्मक बाह्याथं को सिद्धि न हो सकेगी किन्तु नील पीतादि अर्थों का एकत्रित समूह सिद्ध होगा और अवयवी से अभिन्न मानने