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[ शास्त्रवा० स्त०६ श्लो० ३७
ध्वंस न होने से ध्वंसप्रतियोगिता का लवासोतलीभूत व्यत्व का आश्रय होने से घर नित्य होगा और घटस्वेन घट का वस होने से ध्वंसप्रतियोगिता का अवच्छेदकोभत घटत्व का आश्रय होने से अनित्य भी होगा और इस प्रकार नित्यत्य की परिभाषा करने पर प्रसिद्धि भी नहीं होती।"
पक:-किन्तु यह समाधान भी समीचीन नहीं है। क्योंकि, ध्वंसप्रतियोगिता के धर्मायच्छिन्नत्व में प्रमाण न होने से एक ही वस्तु में नित्य और अनित्य के उक्त दोनों लक्षण असम्भवग्रस्त हैं।
यदि जैनों की ओर से इस प्रकार विचार प्रस्तुत किया जाय कि जैसे "वक्ष में शाखा और मूल आदि प्रवच्छदक भेद से कषिसंयोग और कपिसंयोगाभाब का एक यक्ष में समावेश होता है उसी प्रकार द्रव्यत्व और पर्यावरूप अवच्छेदका मेद से एक व्यक्ति में नित्यत्व और अनित्यत्व का भी समावैश उपपन्न हो सकता है। यदि इस पर यह आपत्ति जताई जाय कि-'कपिसंयोग और कपिसंयोगाभाव के दृष्टान्त से नित्यत्य अनित्यत्व के एकत्र समावेश का समर्थन युक्तिसंगत नहीं हो सकता, क्योंकि कपिसंयोग और फपिसंयोगाभाव ये दोनों तो यावदाश्रयभादी नहीं है किन्तु जैन मत में वस्तु का नित्यत्वाऽनित्यत्व तो यावदाययभावी माना गया है। क्योंकि प्रत्येक वस्तु अपने पूरे काल में द्रष्यतया नित्य और पर्यायतया अनित्य होती है। तो इस आपत्ति के उत्तर में जनों की ओर से यह कहा जा सकता है कि-"गुजाफल की श्यामता और रक्तता की भांति यावाश्रमभावी नित्यत्व-अनित्यत्व का एकत्र समावेश होने में कोई बाधा नहीं है। अन्तर केवल इतना है कि गुजाफल में श्यामता और रक्तता की विभिन्न देशावच्छेवेन खण्डशः व्याप्तिः है और नित्यत्वाऽनित्यत्व की अन्योन्यच्याप्ति उससे विलक्षण है और यह बैलक्षण्य विभिन्न देश से अनवच्छिन्न अपृथाभाव-अविनाभावरूप है 1 क्योंकि गुजा का वन्तलग्नभाग और उससे अतिरिक्तभाग गुजा के देश है उनमें पन्तलग्नदेशावच्छवेन श्यामता है और अन्यदेशावच्छेदेन रक्तता है किन्तु द्रक्ष्यत्व-पर्याय ये घटादि के देश नहीं है किन्तु घटादिनिष्ठ धर्म हैं । अतः उनसे प्रचच्छिन्न अविनाभाव विभिनदेशानवच्छिन्न अधिनाभावरूप है।"
किन्तु हमारे (धशेषिकों के) मत से जैनों का यह कथन भी समीचीन प्रतीत नहीं होता क्योंकि आश्रय का न्यूनवृत्ति धर्म अर्थात् 'प्रवच्छेद्य के प्राधय में विद्यमान अभाव का प्रतियोगी धर्म' ही अवच्छेदक होता है । जैसे कपिसंयोगाभावाश्रय वृक्ष में तादात्म्यसम्बन्ध से देशतः अविद्यमान शाखाअभाव की प्रतियोगीभूत शासा, यह वक्षनिष्ठ कपिसंयोगाभाष को प्रबछेदक होती है। यहां घटत्व अनित्यतारूप अवच्छेद्य के आश्रय घट में न्यूनवृत्ति न होने से अनित्यता का, एवं द्रव्यत्व नित्यतारूपअवच्छेद्य के आश्रय द्रव्य में न्यून वृत्ति न होने से नित्यता का अवच्छेदक नहीं हो सकता। यदि 'प्रवच्छेदक आश्रयन्यून वत्ति होता है' यह नियम न माना जाय तो शास्था में कपिसंयोग न होने की दशा में शाखा में शाखात्यावच्छेदेन कपिसंयोगाभाव, एवं वृक्ष में कपिसंयोग होने की दशा में वृक्षत्यावच्छेदेन वृक्ष में कपिसंयोग को आपत्ति होगी।
इससे अतिरिक्त नित्यत्व-अनित्यत्व का एकत्र समावेश मानने में यह भी दोष है कि अनिस्यत्वज्ञान में जो नित्यत्वज्ञान की प्रतिबन्धकता होतो है उसमें व्याप्यत्तित्व ज्ञान को उत्तेजक मान कर अनित्यत्व युद्धि में अव्याप्यत्तित्वज्ञानाभावविशिष्ट नित्यत्वज्ञान को प्रतिबन्धक मानना होगा और ऐसा मानने से प्रतिबन्धकतावच्छेदक में गौरव होने से प्रतिबन्धकता में गौरव की आपत्ति अनि