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त्या०का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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वच्छिन्न प्रतियोगिताकत्व न मानने से 'रक्तं नास्ति' इस प्रतीति की आपत्ति नहीं हो सकती । अतः अन्तराश्याम घट में 'रक्तं नास्ति' इस प्रतीति के विषयरूप में एक अतिरिक्त सामयिक रफ्तात्यन्ताभाव की कल्पना उचित नहीं है। अतः इस रीति से ध्वंस में सामान्यधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्व की सिद्धि प्रक्रियग"-तो यह ठीक नहीं है मोंकि अयंस और प्रागभावों में रक्तत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्व और उसमें अव्याप्यत्तित्व तथा 'रक्तं नास्ति' इत्यादि प्रतीति में अनंत ध्वंसप्रागभावादि विषयकत्व की कल्पना में महागौरव है । अत: त्रिकाल में रक्तशून्य जल आदि द्रव्य में जो नित्यरत्तात्यन्ताभाव क्लप्त है उसका मन्तराश्यामघट में सामयिक सम्बन्ध और मध्यरक्तघट में उसके सामयिकसम्बन्ध का अभाव स्वीकार करने में हो लाघव है। रक्तादि और इसके ध्वंस का कारण न होने से उसमें भाविरक्तादि का ध्यस सम्भव न होने से अन्तराश्यामघटनाठ रक्तध्वंसादि में अध्याप्य वृत्ति रक्तत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्व की कल्पना भी सम्भव नहीं हो सकती है।
इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि यदि अन्तिम रवतध्वंस प्रामाणिक हो तो उसमें रक्तस्वाच्छिन्न प्रतियोगिताकत्व सिद्ध होने से अन्तराश्याम घटादि में विद्यमान रक्तध्वंस में भी रक्तस्वाच्छिन्न प्रतियोगितामत्व की कल्पना हो सकती है किन्तु कारण के प्रभाव से अन्तिमरक्त और उसका ध्वंस असम्भव है क्योंकि- 'यह तभी सम्भव हो सकता है जब सर्वजीवमुक्ति से महाप्रलय का होना प्रामाणिक हो । किन्तु सर्वजीवमुक्ति सम्मव न होने से महाप्रलय का सम्भव न होने के कारण अन्तिमरक्त और उसका ध्वंस प्रसिद्ध है अतः किसी भी ध्वंस में रकतत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्व की सिद्धि न होने पर अन्तरा श्यामघटाविनिष्ठ पतध्वंस में उस की कल्पना भी नहीं हो सकती।
इत्थं च "तद्भावाव्ययं नित्यम्" [त० सू० ५/३० ] इत्यस्य वंसप्रतियोगितानवच्छेदकरूपवद् नित्यम्' इत्यर्थः, ध्वंसप्रतियोगितावच्छेदकरूयरच्चाऽनित्यम्, इति नोभयासमावेशः, न चाग्रसिद्धिः" इत्यपि न सुष्टु समाधानम् । अथ वृक्ष शाखा-मृलाद्यवच्छेदेन कापिसंयोगतदभाववदेकत्रापि द्रव्यतया पर्याय तया च नित्यानित्यत्वमुपपतन्यते, गुलाफलादो श्यामतारक्ततयोविभिन्नदेशावच्छेदरूयायाः खण्डशो व्याप्तलक्षण्येनेवान्योन्यच्याप्तिव्यवस्थितविभिन्नदेशानवच्छिन्नाऽपृथग्भावस्यैव तदर्थत्यादिति चेत् ! न, आश्रयन्यनवृत्तेरेवावच्छेदक वेन घटत्वेन घटेऽनित्यतायाः, द्रव्यत्वेन च नित्याताया असंभवात् । न हि भवति शाखायां शाखात्वावच्छेदेन कपिसंयोगाभावः, वृक्षलायच्छेदन च कपिसंयोग इति । किञ्च, एवं नित्यत्वादिज्ञानस्याऽनित्यत्रादिधीप्रतिबन्धकतायामव्याप्यवृत्तित्वज्ञानाद्युत्तेजकत्वं वाच्यमिति गौरवमिति ।
[नित्यत्व-अनित्यन्त्र के सह समावेश में विवाद ] यदि आप जैनों को और से 'तभाषाऽव्ययं नित्यम्' इस सूत्र का 'ध्वंसप्रतियोगिता का अनवच्छेदक जो रूप, तद्रूपवान् नित्य है' इस प्रकार नित्य का लक्षण किया जाय, और 'ध्वंस. प्रतियोगिता का अवच्छेदक जो रूप तरूपवान् अनित्य है' इस प्रकार अनित्य का लक्षण किया जाय, तो नित्यस्व और अनित्यस्व का एकवस्तु में समावेश अनुचित नहीं होगा, जैसे द्रव्यत्वेन घट का