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[ शास्त्रबार्ता स्त०६ श्लो० ३७
[ इति चेत ? न, तसाधन.... ] बैशेषिक:-प्रथ प्रतियोगिल.... इत्यादि से जनों का यह कथन समोचीन नहीं है, क्योंकि-'त दुरव से अर्थात प्रत्यत्वरूप से नाश प्रसिद्ध होने से द्रव्यत्वरूप से नाश के अभाव को नित्यता कहना शक्य नहीं है क्योंकि असत का निषेध नहीं होता है। विशेषावश्यकभाष्य के प्रथमगणधरवाद की 'असओ णस्थि निसेहो इस १५७४ वी गाथा के अनुसार 'असत् का निषेध नहीं होता है' यह बात जैन को भी मान्य है।
किश्च, 'घटो नास्ति' इति प्रतीत्याऽत्यन्ताभावस्य सामान्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वेऽपि बंसस्य न तथात्वम् , 'कपाले घटध्वंसः' इत्यत्र प्रतियोगितामात्रेणैव घटस्य चंसेऽन्वयात् , 'अन्तरा श्यामे घटे रक्तं नास्ति' इति प्रतीतौ च सामयिकरक्तात्यन्ताभावस्यैव विषयत्वात् , अन्यथा रक्ततादशायामपि तथाप्रत्ययापत्तेः । न च ध्वंसप्रागभावयोरव्याप्यवृत्तिरक्तन्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वकल्पनाद् रक्ततादशायां ध्वंसादेस्तदसत्त्वाद् न तथाप्रत्यय इति वाच्यम् , अनन्तध्वंसमागमावेषु तादृशप्रतियोगिताकत्व-तदच्याप्यवृत्तित्वयोः 'रवतं नास्ति' इत्यादिप्रतीतावनन्तध्वंसादिविषयकत्वस्य च कल्यनामपेक्ष्यान्यत्र कतृप्ततादृशप्रतियोगिकात्यन्ताभावस्येवान्तरा श्यामादौ सामयिकसंवन्धस्य युक्तत्वात् , तत्कारणबाधेन भाविरक्तादिध्वंसाद्यसंभवाच्च ।
[कि च. घटो नास्ति.... ] इसके अतिरिक्त यह ज्ञातव्य है कि घटो नास्ति इस प्रतीति से अत्यन्ताभाव में घटत्वरूप सामान्यधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्व की सिद्धि होने पर भी ध्वंस में सामान्यधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्व प्रसिद्ध है क्योंकि-'कपाले घटध्वंस' इस प्रतीति में ध्वंस में प्रतियोगितामात्र सम्बन्ध से घट का मान मानने से उक्त प्रतीति की उपपत्ति हो जाने से ध्वंस में घटत्वावच्छिन्न प्रतियोगितासम्बन्ध से घट का मान प्रयुक्त है। इसी प्रकार 'अन्तरा श्याम घट' यानो जिस घर में यत्किश्चित् पूर्वरक्तरूप का नाश होकर श्यामरूप को उत्पत्ति हुई है और उत्तरकाल में श्यामरूप का नाश होकर नया रारूप उत्पन्न होनेवाला है ऐसे घट में श्यामर दशा में जो 'रक्त नास्ति' यह प्रती
प्रतीति होती है उसमें ध्वंस में तत्वाबस्छिन्न प्रतियोगिता सम्बन्ध से रक्त का विशेषणविधया भान नहीं माना जा सकता, क्योंकि उस समय भाधि रक्त का ध्वंस नहीं है और पूर्व रक्त के ध्वंस की प्रतियोगिता रक्तत्वाइन नहीं हो सकतो फ्योंकि र तात्य उसका अतिरिक्तवत्ति धर्म है और यदि उसमें प्रतियोगितामात्र सम्बन्ध से ध्वंस में रक्त का विशेषणविधया भान माना जायगा तो 'मध्यरक्त घट' में अर्थात् जिस घर में यत्किञ्चित रक्तरूप का नाश हो चुका है और भविष्य में अन्य रक्तरूप पेश होने वाला है और वर्तमान में यत्किचित् रयत है उसमें 'रयतं नास्ति' इस प्रतीति को आपत्ति होगी क्योंकि उस घर में भी प्रतियोगिता सम्बन्ध से रयत विशिष्ट पूर्व रक्त का ध्वंस विद्यमान है, अतः सन्तरा श्यामघर में 'जो रक्तं नास्ति' यह प्रतीति होती है वह रक्त वंस को विषय न कर सामयिक रफ्तात्यन्ताभाव को विषय करती है । अतः उक्त प्रतीति भी ध्वंस के सामान्यधर्मावच्छिनप्रतियोगिताकत्व में प्रमाण नहीं है।
[न च ध्वंसप्राग०.... ] यदि यह कहा जाय कि “वंस और प्रागभाव में रक्तत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्व को अव्याप्यवृत्ति मानने से अन्तराश्याम घट में ध्वंसप्रागभाव की रक्तत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्वरूप से प्रतीति हो सकती है किन्तु मध्यरक्त घर में रफ्लकाल में ध्वंसादि में रक्तत्वा