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[ शास्त्रवार्ताः स्त० ६ श्लो० ५६
कालम् , क्षणिकन्वेन तस्य स्वयमेवोत्तरकालेऽभावात् । नापि प्रमेयं प्रतिभासमानेन रूपेण वाध्यते, नस्य विशदप्रतिभासादेवाभावाऽमिट्ठः । अप्रतिभासमानेन तु रूपेण स्वत एव वाधः । नापि प्रवृत्तिरुत्पन्ना वाध्यते, उत्पन्नत्वादेवाऽसत्ताऽयोगान , अनुत्पन्नाथास्तु स्वत एवं बाधः।
[माध्यमिक सम्प्रदाय का मतसंक्षेप ] उत्पाव व्यय का निराकरण करनेवाले इन माध्यमिक मतानुयायोओं की परम्पराप्राप्त मान्यता यह है कि जैसे तिमिर रोग से दूषित नेत्र से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान का विषय मूत चन्द्रद्वय विशदज्ञान का विषय होने पर भी पारमाथिक-यथार्थ व्यवहार का विषय नहीं होता, उसीप्रकार नीलादि भी विशववर्शन का विषय होते हुए भी यथार्थध्यवहार के विषय नहीं होते। यदि यह कहा जाय कि-"चन्द्रद्वय का ज्ञान बाध्य होने से भ्रमरूप होता है अत एव उस का यथार्थव्यबहार का विषय न होना युक्तिसंगत है, किन्तु नीलादि ज्ञान अवाध्य होने के कारण भ्रमरूप नहीं है अतः नीलादि का यथार्थव्यवहार का विषय न होना युक्तिसङ्गत नहीं हो सकता"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि बाध्यत्व का निर्वचन न हो सकने से किसी ज्ञान को बाध्यत्व के आधार पर भ्रमात्मक नहीं कहा जा सकता। बाध्यता की अनिर्वचनीयता नितान्त स्पष्ट है-जैसे, बाध्यता का यदि यह अर्थ किया जाय कि-बाधक ज्ञान द्वारा पूर्वज्ञान के उत्पत्तिकाल में ही उस के स्वरूप का साध होता है । अर्थात उस की निःस्वरूपता का बोध होता है तो यह सम्भव नहीं है क्योंकि उस समय उस ज्ञान के स्वरूप का भान आनविक यह भी अर्थ नहीं हो सकता कि 'उस के उत्तरकाल में बाधक ज्ञान द्वारा उस के स्वरूप का बाप होता है -क्योंकि क्षणिक होने से उत्तरकाल में पूर्वज्ञान स्वयं निवृत्त हो जाता है अतः बाधक ज्ञान को उस के स्वरूप का बाधक मानना निरर्थक है । उसका यह भी अर्थ नहीं हो सकता कि 'बाधक झान से उस के विषय का गृह्यमाणरूप से बाध होता है क्योंकि उस का विषय विशदरूप से प्रतिभासित हुना है; अतः उस का बाध असिद्ध है। इसीप्रकार उस का यह भी अर्थ नहीं हो सकता कि पूर्वज्ञान के विषय का बाधकज्ञान द्वारा उस रूप से बाध होता है जो रूप उस ज्ञान द्वारा उस के विषय में गृहीत नहीं होता'-क्योंकि जिस रूप से विषय पूर्व ज्ञान द्वारा गहीत नहीं होता उस रूप से उस का बाध स्वतः सिद्ध है अतः उस में भी बाधकज्ञान का कोई उपयोग नहीं हो सकता। बाधकज्ञान से पूर्वज्ञान को बाध्यता का यह भी अर्थ नहीं हो सकता कि -'पूर्वज्ञान से उत्पन्न होनेवालो प्रवृत्ति का बाधकज्ञान से बाध-असत्त्वबोध होता है'-क्योंकि पूर्वज्ञान से प्रवृत्ति की उत्पत्ति होने से उस में सत्ता का होना सुस्पष्ट है, क्योंकि आद्यक्षरणसम्बन्ध को ही उत्पत्ति कहा जाता है और क्षणसम्बन्ध ही सत्ता है प्रत एवं प्रवृत्ति में उस के विद्यमान रहने पर बाधक ज्ञान से उस में असत्व क
सकता । यदि यह कहा आय कि पूर्वजान से अनुत्पन्न प्रवृत्ति का बाधकज्ञान द्वारा बाध होता है अर्थात उस की उत्पत्ति का प्रतिरोध होने से उस की असत्ता होती है तो यह भी ठीक नहीं-क्योंकि अनुत्पन्न प्रवृत्ति का असत्त्व भी स्वतः सिद्ध है, अत: उस में भी बाधक ज्ञान का कोई उपयोग नहीं है।
किञ्च, बाधक न बाध्यापेनया भिन्नसंतानम् ,अतिप्रसङ्गात् । एकसंताननपि न तदेककालम् , असंभवात् । नापि भिनकालमेकार्थम् , उत्तरघटज्ञानस्य पूर्वघटनानवधिकतापत्तः । नापि भिन्नाथम् , उत्तरपटज्ञानस्य तथात्वापत्तेः । नाप्यनुपलब्धिर्वाध्यज्ञानसमानकाला तदाधिका, तस्या