________________
२०३
स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
हो सकता ( ३ ) सत्व और असत्व में विरोध होने से उसे सद्-असत् उभयस्वरूप भी नहीं माना
जा सकता ।
(३) तीसरे पक्ष में अर्थात् स्व और अन्य दोनों से कार्य का उत्पाद व्यय मानने पर पूर्व के दोनों पक्षों के दोष प्रसक्त होंगे, क्योंकि जो दोष प्रत्येक पक्ष में होता है वह दोनों पक्षों को अपनाने पर केले नहीं होगा अर्थात् होगा हो ऐसा विद्वानों ने निश्चय कर रखा है ।
(४) चतुर्थ पक्ष में अनभ्युपगम दोष है अर्थात् उत्पाद व्यय दोनों को निर्निमित्तक कोई भी नहीं मानता। जैसा कि नागार्जुन को माध्यमिक कारिका के प्रत्ययपरीक्षा प्रकरण के प्रथम श्लोक में कहा गया है कि कोई वस्तु कभी और कहीं स्वतः परतः अथवा स्व पर उभयतः अथवा हेतु भित्र से किंवा हेतु के प्रभाव से नहीं उत्पन्न होते ॥५५॥ और
५६ वीं कारिका में उत्पाद और व्यय न मानने पर पुत्रोत्पत्ति का ज्ञान होने पर सुख पुत्रविनाश का ज्ञान होने पर दुःख कैसे सम्भव होगा ? इस प्रश्न का उत्तर दिया गया हैनन्वेवं कथं पुत्रोत्पादज्ञानं सुखम्, तद्ध्वसे च ज्ञाते दुःखम् १ इत्यत आहमूलम् — उत्पाद व्ययबुद्धिश्च भ्रान्ताऽऽनन्दादिकारणम् । कुमार्याः स्वप्नवज्ज्ञेया पुत्रजन्मादिबुद्धिवत् ॥ ५६ ॥
उत्पाद व्ययबुद्धि लौकिकी, परमार्थेन भ्रान्ता व वस्तुसती । किं वत् ? इत्याह-कुमार्याः स्वमवत्-स्वापदशायामकृतसंभोगायाः कन्यायाः संभोगानुभव ( ०नुभूति) वत् । sarपि साऽऽनन्दादिकारणम्, आदिना शोकग्रहः । किं वत् १ इत्याह--पुत्रजन्मादिबुद्धिवत्, आदिना पुत्रमरणग्रहः, 'कुमार्याः स्वप्ने' इति योज्यते ।
[ लौकिक उत्पाद-व्ययबुद्धि भ्रान्त है ]
लोक में जो उत्पाद और विनाश की बुद्धि होती है वह यथार्थ नहीं होती किन्तु भ्रमरूप होतो है और वही श्रानन्द और शोक को जनक होती है। इसका समर्थन कुमारी जिसे जाग्रदवस्था में कभी संभोग का अवसर प्राप्त नहीं हुआ उसे स्वप्नावस्था में सम्भोगानुभूति होती है। ऐसी भी स्वाप्तिक अनुभूति आनन्दादि का कारण होती है। यहां 'आदि' पद से अन्य स्थानिक अनुभूति से होने वाला शोक प्राह्य है । यह आनन्द या शोक जनक अनुभूति इस प्रकार है- जैसे स्वप्न में सुखजनक पुत्रजन्म की बुद्धि और दुःखजनक पुत्रविनाश की वृद्धि होती है तो जैसे उक्तबुद्धि भ्रमरूप होने पर भी सुख और दुःख का उत्पादक होती है उसी प्रकार जाग्रदवस्था में होनेवाली पुत्र के उत्पाद और विनाश की बुद्धि भ्रमरूप होने पर भी उससे सुख और शोक की उत्पत्ति हो सकती है।
अत्रायममी संप्रदायः- नीलादयो न परमार्थं सद्व्यवहारानुपातिनः, विशददर्शनावभासितत्वात्, तिभिरपरिकरितढरावभासीन्दुद्वयवत् । न चन्द्रद्वयज्ञानं चाध्यत्वाद् श्रान्तम्, नीलादिज्ञानं वाध्यत्वाद् न तथेति सांप्रतम्, वाध्यत्वानुपपत्तेः । तथाहि--याधकेन न विज्ञानस्य तत्कालभावि स्वरूपं वाध्यते, तदानीं तस्य स्वरूपेण प्रतिभासनात् । नाप्युत्तर
-