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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ५ श्लो० १२ ।
[अनुमान में लिंगात्मकता की आपत्ति ] यदि यह कहा जाय कि-'नीलादि में ज्ञान का ऐक्य अनुमानसिद्ध है। अनुमान प्रयोग इस प्रकार है-'नीलादि ज्ञान से अभिन्न है क्योंकि वह ज्ञानका कार्य है, जैसे उत्तरवर्तीज्ञान" को यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जो जिस का कार्य हो वह उस से अभिन हो ऐसा नियम मानने पर जैसे उत्तरलिगक्षण पूर्वलिंगक्षण से अन्य होता है उसी-प्रकार अनुमान भी लिंगजन्य होने से अनुमान में भी लिंगात्मकत्य की प्रापति होगी। यदि यह कहा जाय कि-उपादानशक्ति एवं उपादान स्वभाव से सम्पन्न जिस हेतु से जो जन्म होता है वह उस से अभिन्न होता है-यह व्याप्ति है। अनुमान का जनक लिगउपादानस्वभाव सम्पन्न नहीं है किन्तु निमितशक्ति एवं निमित्तस्वभावसम्पन्न है अत: लिंगजन्यत्व से अनुमान में लिंगरूपता का आपादन नहीं हो सकता"-तो यह समाधान ज्ञान और ज्ञेय के मध्य भी समान है क्योंकि नीलादि ज्ञेयपदार्थ ज्ञाननिमित्तक है, न कि ज्ञानोपासनक । अतः ज्ञानअन्यत्व से नीलादि में जान भिन्नत्व का साधन अशक्य है।
[भिन्न प्रत्यासत्ति से अर्थ ग्रहण में आपत्ति की तुल्यता] जेय-ज्ञान के ऐक्य पक्ष में यह भी एक युक्ति प्रस्तुत की जाती है कि-'ज्ञान जिस प्रत्यासत्ति से अपने स्वरूप को ग्रहण करता है उसी प्रत्यासति से यदि प्रर्थ को भी ग्रहण करेगा तो दोनों में ऐक्य अनिवार्य है क्योंकि स्वरूप के साथ ज्ञान की तादात्म्यप्रत्यासत्ति है । अतः वही प्रत्यासत्ति यदि अर्थ के साथ भी होगी तो अर्थ को ज्ञान से भिन्न मानना या कहना असम्भव होगा । यदि कहेंगे'अपने स्वरूप के ग्राहक प्रत्यासत्ति से भिन्न प्रत्यासत्ति द्वारा प्रर्थ का ग्रहण करेगा' तो भिन्न दो प्रत्यासत्ति से ग्रहणकर्तृत्वरूप स्वभावय को आपत्ति होगी। फिर उस स्वभावद्वय को भी दूसरे स्वभावसूय से ग्रहण करेगा और उस स्वभावद्वय को मो अन्य स्वभावदय से ग्रहण करेगा-ता अनन्त स्वभावभेद की कल्पना होने से अनवस्था होगी। इसके साथ यह भी नयो आपत्ति होगी कि ज्ञान स्वसंविदित होता है अत एव उस पदार्थ में ऐसे स्वभाव को कल्पना उचित नहीं हो सकती जो कि स्वसंविवित न हो। अतः भिन्नप्रत्यासत्ति से अपने स्वरूप और अर्थ का ग्रहण मानना सम्भव न होने से दोनों को एक प्रत्यासत्ति से ग्राह्य मानना आवश्यक होगा और इसके कारण उक्त रीति से दोनों में ऐक्य की सिद्धि अनिवार्य होगी-, किन्तु यह युक्ति भी मनादरणीय है क्योंकि उक्त प्रश्न के समान ही लिंग के विषय में भी यह प्रश्न हो सकता है कि वह समानक्षण का और अनुमानक्षण का एकरूप से कारण होता है ? या भिन्नरूप से ? एकरूप से कारण होने पर दोनों में ऐक्यापत्ति होगी और भिन्नरूप से कारण मानने पर लिंग में स्वभावद्वय की प्रापत्ति होगी। फिर उस स्वभावद्वय से उपेतलिंग को उपपत्ति के लिये उस के कारणों में भी स्वभावद्वय की कल्पना करनी होगी। इस प्रकार पूर्व-पूर्व करणों में स्वभावभेद करने से अनवस्था होगी । यदि यह कहा जाय कि लिग अपने एक हो स्वभाव से परस्पर भिन्न समानक्षण और अनुमानरूप वो कार्यों का जनक होता है तो फिर ज्ञान भी एक हो स्वभाव से अपने स्वरूप और अर्थ का ग्राहक होता है । इन शब्दों से यदि विज्ञानवादी के कान में पोडा होती है तो इस के प्रतिकार का क्या उपाय है ? कहने का आशय यह है कि'ज्ञान अपने स्वभाव से ही अपने स्वरूप और अपने से भिन्न अर्थ का ग्राहक होता है- ऐसा यह मानने में कोई बाधा नहीं है।