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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
एवं ज्ञानाद् ग्रहणक्रियाया अर्थान्तरत्वा ऽनर्थान्तरत्व पक्षदोषेऽप्यनुमाने लिंगादुत्पत्तेस्तत्पक्षदोष तौल्यं विभावनीयम् ।
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[ ग्रहणक्रिया के ऊपर आरोपित दोष का प्रतीकार ]
'ज्ञान से ग्रहण क्रिया होती है' इस मान्यता में विज्ञानवादी को ओर से ग्राह्यग्राहकभाव के विरुद्ध जो यह दोष प्रदर्शित किया गया था कि- 'ज्ञान से होने वाली ग्रहणक्रिया को ज्ञान से प्रर्थान्तर मानने गए जिस को तो जायगा तो ग्रहणक्रिया का ग्रहणस्वरूपात्मनंब ज्ञान होगा उसमें ज्ञानकर्तृ कता का ज्ञान न हो सकेगा। यदि परतः ग्राह्य माना जायगा तो ग्रहणक्रिया की परकग्रहणक्रिया होगी, उस के विषय में भी इस प्रकार का प्रश्न उठाने पर और उस का इसी प्रकार का समाधान करने पर अनवस्था होगी। और यदि ग्रहणक्रिया को ज्ञान से प्रर्थान्तर न माना जायगा तो अभिन्न में कर्तृ - क्रिया भाव सम्भव न होने से ग्राहकभाव असिद्ध होगा ।" किन्तु यह दोष विज्ञानयादी के मत में लिंग और अनुमान के कार्यकारणभाव में भी समान है जैसे, लिंग-श्रनुमान के कार्यकारणभाव के सम्बन्ध में भी यह प्रश्न ऊठना स्वाभाविक है कि कार्यकारणभाव को यदि लिंग और अनुमान से भिन्न यानी ज्ञानानात्मक मानने पर विज्ञानवादी को सिद्धान्तहानि होगी । ज्ञानात्मक मानने पर यदि उस का स्वतोग्रहण माना जायगा तो उस के स्वरूपमात्र का ग्रहण होगा, लिंगानुमाननिष्ठतया उस का ज्ञान नहीं हो सकेगा । यदि परतो ग्रहण होगा तो वहाँ पर अनुमान ही होगा, अतः यह अनुमान और उस के कारणभूत लिंग के कार्यकारणभाव के सम्बन्ध में भी इसीप्रकार का समाधान करने में अनवस्था चलेगी । अतः लिंग और अनुमान के हेतु हेतुमद्भाव की निर्दोषता जिस प्रकार विज्ञानवाद में सिद्ध होगी उसीप्रकार ग्राह्य ग्राहकभाव अर्थात् 'ग्रहण का कर्त्ता ग्राहक है और ग्रहणक्रिया का आश्रय ग्राह्य है' इस मान्यता को भी निर्दोषता सिद्ध हो सकती है ।
'परमार्थतो लिंगं नानुमानकारणम्, व्यवहाराच तथेष्यत' इति चेत् ? अर्थस्यापि तत एव ज्ञानप्रात्वं किं नेष्यते ! 'व्यवहाराप्रामाण्याल्लिङ्गमप्यनुमानकारणं तच्वतो नेष्यत एव, ग्राह्य-ग्राहकभाववत् कार्यकारणभावस्यापि निषेधात् समारोपच्यवच्छेदकरणात् त्वनुमानं प्रमाणमिष्यते ' इति चेत ? न तत्र समारोपव्यवच्छेदस्य तन्मते कथमपि कतुमशक्यत्वात्, नाशस्य निर्हेतुकत्वाभ्युपगमात्, तत्कारणानां सामर्थ्येऽसामर्थ्य वा तदुत्पत्तिप्रतिबन्धस्यायि वक्तुमशक्यन्दात् ;
"यस्य शक्तिरशक्ति या स्वभावेन संस्थिता | नित्यत्वादचिकित्स्यस्य कस्तां क्षपयितुं चमः १ ॥ "
इति स्वयमेवाभ्युपगमात् ।
यदि यह कहा जाय कि 'लिंग परमार्थतः अनुमान का कारण हो नहीं किन्तु व्यवहारवश उसे अनुमान का कारण माना जाता है ।' तब लिंग और अनुमान के हेतु हेतुमद्भाव के दृष्टान्त से अर्थ और ज्ञान में व्यवहार से ग्राह्य ग्राहकभाव का उपपादन क्यों नहीं हो सकता ?" क्योंकि जैसे लिंग में व्यवहारवश अनुमानकारणता मानी जाती है उसीप्रकार अर्थ में व्यवहारगत ज्ञानग्राहिता