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| शास्त्रवासी० स्त० ५ इलो १२
भी मानी जा सकती है जिससे अर्थग्रहण व ज्ञान में कार्यकारणभाव बन सकता है और इस से बाह्य अर्थ की वास्तविकता भी सुरक्षित रहती है। यदि यह कहा जाय कि लिंग में अनुमान कारणता का व्यवहार अप्रामाणिक है अतः लिंग भो वस्तुतः अनुमान का कारण नहीं हो है ।' ग्राह्यग्राहकभाव के समान कार्यकारणभाव भी विज्ञानवादी को अमान्य है । फिर भी अनुमान में जो प्रमाणव्यवहार होता है वह भी समारोप के व्यवच्छेद का जनक होने से तो यह ठीक नहीं है क्योंकि समारोप का व्यवच्छेद समारोप की निवृत्तिरूप हैं । और निवृत्ति नाश रूप होती है एवं नाश बौद्धमत में निर्हेतुक है | अतः समारोपव्यवच्छेद को अनुमानहेत का शक्य नहीं है।
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[ बौद्धमत में अनुमान का असंभव ]
इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि समारोपव्यवच्छेद को इसलिये भी अनुमानहेतुक नहीं कहा जा सकता कि अनुमान स्वयं ही सम्भवित नहीं है । पर्वत में वह्नि के समारोप का व्यवच्छेद वह्नि के अनुमान से होगा और वह्नि का अनुमान धूमात्मक लिंग से होगा और उसमें धम में वह्नि का व्याप्तिज्ञान अपेक्षित है। किन्तु धूम में वह्नि का व्याप्तिज्ञान तादात्म्य से तो सम्भावित नहीं है क्योंकि दोनों में ऋत्यन्त भेद है। अतः वह्नि से धूम की उत्पत्ति द्वारा ही इस व्याप्ति का ज्ञान होगा, किन्तु यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि धूम में वह्नि से उत्पत्ति होने का निर्णय धूम और वह्नि के कार्यकारणभाव के निर्णय से ही हो सकता है किन्तु वह बौद्धमतानुसार असम्भव है क्योंकि वह्नि को घूम के प्रति वह्नित्वरूप से कारण मानने पर
सामान्य में घूमजनन का सामर्थ्य मानना होगा । जिसके फलस्वरूप इन्धन के संविधान में भी वह्नि से धूमोत्पत्ति का प्रसंग होगा, एवं श्रसमर्थ मानने पर धनसंयुक्तर्वाह्न से भी धूम की उत्पत्ति न हो सकेगी। यदि वह्नि को धूम के प्रति धूमकुर्वद्रूपत्वेन कारण मानेंगे, तो धूम विशेष में वह्निविशेष का हो व्याप्तिज्ञान हो सकेगा किंतु धूम सामान्य में बह्निसामान्य का व्याप्तिज्ञान नहीं होगा । फलतः अनुमान का उदय शक्य न होने से समारोपच्यवच्छेद को अनुमान हेतुक कहना सम्भव नहीं हो सकता । उक्तरोति से व्याप्तिज्ञान की असम्भाव्यता को स्फुट करने के लिये व्याख्याकार ने बौद्धों के हो 'स्य शक्तिरशक्तिर्वा ....' इत्यादि वचन को उपन्यस्त किया है जिस का अर्थ यह है कि- 'जिस वस्तु में कार्य को शक्ति अथवा अशक्ति सहज होती है उस शक्ति अथवा अशिक से वह वस्तु सदा अपने पूरे अस्तित्वकाल में संसृष्ट होती है अतः वह वस्तु अचिकित्स्य अर्थात् उस शक्ति अथवा अशक्ति से पृथक् करने के लिये अयोग्य होती है । अतः उस शक्ति अथवा शक्ति को कौन निवृत्त कर सकता है !' बौद्ध ने स्वयं हो ऐसा माना है ।
न चानुमानसहायस्य प्राक्तनसमारोपक्षणस्योत्तरसमारोपक्षणान्तरजननासमर्थक्षणजननादू द्वितीयक्षणे कारणाभावादेव समारोपानुत्पत्तेरनुमानप्रामाण्यम् लिङ्गाऽनुमानयोरिव पूर्वोत्तरसमारोप क्षणयोर्हेतुफलभावाभावात्, न्यायस्य समानत्यात् ।
[ पूर्वोत्तर समारोपक्षण में हेतु-फल भाव का असंभव ]
यदि यह कहा जाय कि - "अनुमान लिङ्गज्ञान सहकृत पूर्वकालिक समारोपक्षण ऐसे क्षण का जनक होता है जो क्षण अपने उत्तरकाल में नये समारोपक्षण को उत्पन्न नहीं कर सकता । आशय यह है कि जब पर्यंत में वह्नि अभाव के किसी समारोपक्षण में वह्निव्याप्तिविषयक धूमज्ञान