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स्या०क० टोफा एवं हिन्दी विवेचन ]
रूप लिङ्गजान उत्पन्न होता है तो उसके द्वितीयक्षण में वह्नि प्रभाव का समारोपक्षण और वह्नि अनुमान दोनों का उदय होता है क्योंकि पूर्व में उक्त समारोप का विरोधी वह्रि अनुमान संनिहित नहीं रहता। किन्तु उसके अग्रिमक्षरए में अति प्रभाव के समारोप का जन्म नहीं हो सकता क्योंकि उसका विरोधी वह्नि-अनुमान द्वितीयक्षण में उत्पन्न हो जाता है । अतः द्वितीयक्षण में प्रतिबन्धकाभावविशिष्ट समारोपक्षण रूप कारण का प्रभाव होने से अग्रिमक्षण में समारोप की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार वह्निप्रभाव के समारोप का व्यवच्छेद होने से वह्निअनुमान में प्रामाण्य उपपन्न हो सकता है ।"
तो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि जिस न्याय से लिन और अनुमान में कार्यकारणभाव नहीं हो सकता उसी न्याय से पूर्वोत्तरवर्ती समारोपक्षण में भी कार्यकारणभाव नहीं हो सकता । अतः यह नहीं कह सकते कि-लिझान-सहत पूर्वकालिक समारोपक्षण ऐसे क्षण का जनक होता है जो अपने उत्तरकाल में समारोपक्षण को नहीं उत्पन्न कर सकता।
___ यदपि 'पूर्वदृष्टैकत्यागतेरयोगाद् नानुभवात् प्रागर्थसिद्धिः' इत्यभिहितम् , तत्रापि न सम्यगवाहितम् , प्रत्यभिज्ञयेव तदेकरवानगतेः । न च -'सोऽयमिति नैकं ज्ञानम्इत्युक्तं युक्तम्', प्रत्यक्षस्वजातिवादिनां तदेक्यासंगतावप्यस्माकं स्वरूप इवेदमंशेऽपि स्पष्टतया प्रत्यक्षत्वेऽपि तदुपयोगसामान्ये विलक्षणक्षयोपशमवलायातप्रत्यभिज्ञात्वाऽविरोधात, 'इदं पश्यामि' इतिवत् 'तमिमं प्रत्यभिजानामि' इत्यनुभवात् । न च "स्पष्टं प्रत्यक्षम्" [प्र० न० तत्व० २-२ ] इति लक्षणातिव्याप्तिः, बहिर्विषयसामान्ये स्पष्टताया लक्षणघटकत्यान् , 'वहिरर्थग्रहणापेक्षया हि०' इत्याकरस्वारस्याऽविरोधादित्यन्यत्र विस्तरः । यदप्यर्थ विनापि स्वापादाविव जाग्रहशायां भानमुक्तम् , तदसिद्धमसिद्धन साधयतः स्वस्य महामोहमग्नता व्यञ्जयति, न हि स्वनादावप्यर्थं विना भानं भवादृशं विना स्वीकरतेऽन्यः कश्चित् , अनुभृतस्यैव रथादेस्तदा सन्निहितत्वेन दोषमहिम्ना मानात, असदाकारस्यैव जनने च वासना शशविषाणमपि किं न जनयेत ? न यत्र न पर्यनुयोग इति राज्ञामाज्ञा । 'प्रतिनियतशक्तिविशेषचाविद्यायामेव, न शशविषाणे' इत्यत्र श्रद्धामात्रमेव शरणम् ।
[प्रत्यभिज्ञा से पूर्वदृष्ट अर्थ के एकत्व का प्रमाणभूत वोध ] विज्ञानवादी की ओर से जो यह बात कही गयी थी कि-'पूर्वदृष्ट और दृश्यमान अर्थों में एकत्वज्ञान के न होने से वर्तमान अनुभव के पूर्व उसके विषयभूत अर्थ को सिद्धि नहीं हो सकती'उस कथन में भी उचित ध्यान नहीं दिया गया, क्योंकि पूर्वेदृष्ट और दृश्यमान में एकत्व का ज्ञान प्रत्यभिज्ञा से ही सम्पन्न हो जाता है । इस संदर्भ में जो यह बात कहो गयी थी कि-'सोऽयम्' = 'यह उससे अभिन्न है-यह एक ज्ञान नहीं है किन्तु 'सः' अंश में स्मरण और 'प्रय' अंश में प्रत्यक्ष
वहिरर्थापेक्षया हि विज्ञानानां प्रत्यक्षपरोक्षव्यपदेशो न तु स्वरूपापेक्षया, स्वरूपे सर्वज्ञानानां स्पष्टप्रतिभासत्वेन प्रत्यक्षतयंव व्यवस्थितत्वात् । [ स्या० २० पृ० ३१८ ]