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[ शास्त्रधार्ता० स्त० ५ श्लो० १२
रूप दो ज्ञान है-वह ठीक नहीं है क्योंकि प्रत्यक्षत्व जातिवादी नैयायिक के मत में उक्तज्ञान में ऐक्य संगत न होने पर भी जैन मत में उसे एक मानने में कोई बाधा नहीं है। वह ज्ञान जैसे अपने स्वरूप में स्पष्ट होने से प्रत्यक्ष है ऐसे इदमंश में भी स्पष्ट होने से प्रत्यक्ष है. लदेश में अस्पष्ट होने से पराक्ष है। किन्तु उभयांश में बह उपयोगरूप है। अतः उपयोगात्मना उसमें प्रत्यासिज्ञारव धर्म मानने में कोई विरोध नहीं है क्योंकि तदंश और इदमंश के ऐक्य के प्रावरणीय कर्म के विलक्षणक्षयोपशम से उस अंश में प्रत्यभिज्ञात्व निर्वाध है।
[प्रत्यक्ष के लक्षण की प्रत्यभिज्ञा में अतिव्याप्ति नहीं है ] दूसरी बात यह है कि जैसे . 'इदं पश्यामि' इस अनभव से उक्त ज्ञान में इदमंश में प्रत्यक्षत्व सिद्ध होता है उसी प्रकार ताममं अत्यभिजानामि-उससे अभिन्न इस को पहचानता हूं' इस अनुभव से उक्त ज्ञान में तत और इद के अमेवांश में प्रत्यभिज्ञात्व भी सिद्ध है। उक्तज्ञान को इदमंश में स्पष्ट
नने पर प्रत्यक्षलक्षण को अतिव्याप्ति का मापादन नहीं किया जा सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष के लक्षण में बाह्यविषयसामान्य में स्पष्टता का संनिवेश नै । अर्थात जो ज्ञान अपने समस्त बाह्य विषयों में स्पष्ट होता है वह प्रत्यक्ष होता है। उक्त ज्ञान अपने विषयभूत तदंश रूप बाह्य अर्थ में स्पष्ट नहीं है अतः उसमें प्रत्यक्षलक्षण को प्रतिव्याप्ति नहीं हो सकती । इस संदर्भ में स्याहादरत्नाकर में आये हुए 'अहिरर्थग्रहणापेक्षया ही विज्ञानानां इस वचन का भी अनुकल अभिप्राय उल्लेखनीय है कि अपने विषयभूत समस्त बाह्यार्थों में स्पष्ट होने से विज्ञान अपरोक्ष होता है। स्वरूपांश या केवल किसी बाह्मविशेषमात्र में स्पष्ट होने से प्रत्यक्ष नहीं कहा जाता।
विज्ञानवादी की ओर से जो यह बात कही गयो कि "स्वप्नादि में जैसे अर्थ के दिना भी अर्थाकार का भान होता है उसी प्रकार जाग्रतकाल में अर्थ के विना भी अर्याकार का ज्ञान हो सकता है अतः ज्ञान से भिन्न अर्थ की सत्ता नहीं है"-यह कथन तो असिद्ध से ही अमिद्ध का साधन असा प्रयास करने वाले विज्ञानवादी के महामोह का सूचक है, क्योंकि स्वप्नादि में भी अर्थ के बिना प्रकार का भान विज्ञानवादी को छोड अन्य कोई स्वीकार नहीं करता। कारण स्पष्ट है कि स्वप्नावस्था में भी जाग्रत्काल के अनुभूत रथादि का ही दोषवशात् संनिहितरूप में परिज्ञान होता है । क्योंकि स्वघ्नादि में वासना यदि असत् रथादि आकार की जनक होगी तो असदाकार शश-विषाण आदि को भी जनक होने को प्रापत्ति होगी। क्योंकि इस बात में विनिगमक दुष्प्राप्य है कि वासना अमुक प्रसत का जनक हो और नमक कान हो। यह जो कहा गया कि-'वासना अथवा अविद्या एवं तन्मुलक कल्पनाओं के सम्बन्ध में कोई विपरीत प्रश्न नहीं हो सकता।' वह कर क्योंकि ऐसी कोई राजाज्ञा नहीं है जिसके कारण प्रश्नकर्ता की वाणी पर प्रतिबन्ध लग जाय । यह कहना कि 'वासना में असदाकार ज्ञान के ही अनन की शक्ति होती है शशविषाण की नहीं' यह भी युक्तिहीन होने से श्रद्धामात्र का हो द्योतक है।
यदपि 'प्रागसत्त्वे तु दर्शनमेव मानम्' इति । तदपि न पेशलम् , तपेणाऽनिश्चयात, अन्यथा संशयाऽयोगात् । यदपि 'स्व-परदृष्टनीलयोझेदान् न साधारणं नीलं ब्राह्यतयाभिमतं सियति, किन्तु ग्राहकत्वाभिमतमेव तद् युक्तं' इति ।' तदप्यसत्, विना साधारणतां पर