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स्मा०० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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एतदेव समर्थयतिमूलं व्यवस्थितो' च तत्त्वस्य तथाभावप्रकाशकम् ।
ध्रुवं यतस्ततोऽकर्मकत्वमस्य कथं भवेत् ? ॥ २३ ॥ व्यवस्थितौ तत्त्वस्थ-तत्तथाभावस्य, ध्रुवं निश्चितम्, तद्-विज्ञानम् , तथाभावप्रकाशक व्यवस्थाप्यज्ञानस्याकर्मकरकाशमात्रत्वद्योतकम् यतः यस्मातः ततोऽस्य-ज्ञानस्य, अकर्मकत्वं कथं भवेत ? सविषयकन्यस्यैव सकर्मकत्वात् १ । न हि शाब्दं सकर्मकत्वमत्र विचार्यत इति ॥ २३ ॥
[ सविषपकत्वरूप सकर्मकत्व ज्ञान में अपरिहार्य ] यदि विज्ञान का प्रककत्वस्वरूप व्यवस्थित होगा तो निश्चय यह विज्ञान ही अपने अकर्मक प्रकाशमानरूपता का ग्राहक होगा । इसप्रकार अकर्मक प्रकाशमात्ररूपता और ज्ञान स्वयं उस विज्ञान का विषय हो जाता है ऐसी स्थिति में वह अकर्मक कैसे हो सकता है क्योंकि ज्ञान का सकर्मकत्व सविषयकस्वरूप ही होता है।
यदि यह कहा जाय कि सकर्मक वही किया होती है जो फलविशिष्टच्यापारवाचकशब्द से गम्य होती है-जैसे गतिक्रिया संयोगरूपफल से विशिष्ट स्पन्वरूप व्यापारवाचक गम् पातु से घोधित होती है । किन्तु ज्ञानक्रिया तो फल से अविशिष्ट शुद्ध ज्ञान के बोधक शब्द से घोधित होती है अतः बह सकर्मक नहीं हो सकती-तो इसका उत्तर यह है कि यह सकर्मकस्व शाब सकर्मकत्व है उसका विचार प्रकृत में नहीं है क्योंकि यदि शाब्दसकर्मकत्य को दृष्टि से उसे अकर्मक कहना हो तो उसमें किसी को विमति नहीं हो सकती। विमति केवल उसके सविषयकत्वरूप सफर्मकत्व के सद्भाव और अभाव के सम्बन्ध में है। उपयुक्त युक्ति से उसमें सविषयकस्य की सिद्धि अपरिहार्य हो जाती है । अत एव उसके अकर्मकत्व स्वरूप की व्यवस्था नहीं हो सकती ।। २३ ॥
२८वीं कारिका में पुनः बौद्ध के अभिप्राय को शङ्कारूप में प्रस्तुत कर उसका परिहार किया गया है
पराभिप्रायमाशक्य परिहरबाहमूलं-व्यवस्थापकमस्यैवं भ्रान्तं चैतत्तु भावतः ।
तथेत्यभ्रान्तमन्त्रापि ननु मानं न विद्यते ॥२४॥ अस्य व्यवस्थाप्यस्य एवं व्यवस्थापकम् प्रकाशमात्रत्वद्योतकं ज्ञानान्तरमस्ति, एतत्तु भावतः परमार्थतः, तयेति-सविषयकमिति भ्रान्तम् । व्यवस्थाप्यं तु स्वतः स्फुरदूपत्वाद् ग्रामग्राहकभावविनिमक्तत्वात प्रमाणम् , स्वाविषयकत्वेऽपि परानपेक्षस्फूर्तिकत्वेन स्वसंविदित१ सर्वत्र मलादर्श 'ती च त' इनि पार्टऽपि, टीकाकाराभित्रायेण 'ती तत् त' इति युज्यते, 'तद्-विज्ञानम्' इत्यस्य टोकापाटस्यान्यथानुपपद्यमानत्वात् ।