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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ५ श्लो० २५
त्वाऽव्याहतेः । 'ज्ञानाकार' वा तद् नीलाद्याकारं वे 'ति चेत् ? नीलादिस्वलक्षणाकारमेव, न तु सामान्याकारमिति । नन्वेव मन्त्रापि अकर्मकप्रकाशमात्रत्वेऽपि अभ्रान्तं मानं न विद्यते, सविषयकत्वेनास्यापि भ्रान्तत्वादित्यर्थः ||२४||
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[ अकर्मक प्रकाशमात्रता के बौद्ध समर्थन का प्रतिक्षेप ]
प्रकाशमात्रात्मक रूप में जिस विज्ञान को व्यवस्थित करना है उसकी प्रकाशमात्रता का ग्राहक वह स्वयं नहीं है किन्तु ज्ञानान्तर है अतः व्यवस्थाप्य विज्ञान को सविषयक समझना भ्रम है। क्योंकि वह परमार्थतः निर्विषयक है और वह स्वतः स्फुरणशील है - प्राह्य ग्राहकभाव से सर्वथा मुक्त है। श्रत एव कल्पना से प्रसंसृष्ट होने के कारण प्रमाण है । एवं स्वविषयक न होने पर भी अपनी स्फुतिस्वरूप भाव में अन्यनिरपेक्ष होने के कारण स्वसंविवित है। प्रकाशमात्रात्मक विज्ञान के सम्बन्ध में यदि यह प्रश्न किया जाय कि वह सामान्यरूप से जानाकार है अथवा नोलाचाकार है ? यदि ज्ञानश्कार होगा तो नीलादि व्यवहार को उपपत्ति न होगी। क्योंकि व्यवहार और व्यवहार निर्वर्तक ज्ञान में समानाकारत्व का नियम है। यदि नोलायाकार होगा तो नीलादि का ग्राहक हो जायगा । अतः उसकी ग्राह्यग्राहक ग्राकारमुक्त प्रकाशस्वरूपता नहीं उपपन्न हो सकती है। विज्ञानबादी की ओर से इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वह सामान्यतः ज्ञानाकार नहीं है किन्तु नीलाद्याकार हो है और नीलादि श्राकार विज्ञान का स्वलक्षणस्वरूप हो है उससे मित्र नहीं है अतः उसके द्वारा उसमें ग्राहकता की प्रसक्ति नहीं हो सकती ।' ग्रन्थकार ने इस अभिप्राय का प्रतिकार कारिका के चौथे पाद में करते हुये कहा है कि ज्ञान को अकर्मक प्रकाशमात्रता में भी कोई प्रभ्रान्त प्रमाण नहीं है, क्योंकि जिस ज्ञान से विज्ञान में अकर्मक प्रकाशमात्य का अवधारण होगा यह भी सविषयक होने से भ्रमरूप ही है ।। २४॥
ज्ञान को अकर्मक प्रकाशमात्रता में प्रभ्रान्त प्रमाण न होने से विज्ञानवादी की सम्भावित हानि का प्रदर्शन २५ वीं कारिका में किया गया है
यदि नामैव ततः किम् ? इत्याह
मूलं - भ्रान्ताच्चाऽभ्रान्तिरूपा न युक्तियुक्ता व्यवस्थितिः । 'दृष्टा तैमिरिकादीनामक्षादाविति चेन्न तत् ॥ २५ ॥
भ्रान्ताञ्च–व्यवस्थापकात् अभ्रान्तरूपा व्यवस्थितिरधिकता न युक्तियुक्तान न्यायो - पन्ना | पर आह- ननु नायं नियमो यत् 'भ्रान्तादभ्रान्त व्यवस्थितिर्न' इति, यतस्तै मिरिकादीनां तिमिरादिदोषवताम्, तज्ञ्जनितद्विचन्द्रादिज्ञानाद् भ्रान्तादपि अक्षादौ तिमिराद्यक्षदोपाद अभ्रान्तव्यवस्थितिदृष्येति चेत् ? अत्रोत्तरम् - न तत्-नैतदेवम् ॥२५॥
व्यवस्थापक के भ्रान्त होने पर व्यवस्थिति को प्रभ्रान्तता युक्तिसंगत नहीं हो सकती । यदि इसके विरुद्ध विज्ञानवादी की ओर से कहा जाय कि - 'भ्रान्तव्यवस्थापक से अभ्रान्त व्यवस्था नहीं होती है - यह नियम नहीं है क्योंकि तिमिररोगग्रस्त चक्षुवाले मनुष्यों को उस दोष से जो चन्द्रद्रय का