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! शास्त्रवा० स्त० ६ लो०३७
इस व्यवहार में प्रामाण्य की आपत्ति होगी। क्योंकि जो स्वभाव इदातानिरूपित है वही तत्ता से निरूपित है और तत्तानिरूपितत्वेन स्वभावव्यवहार के लिये लत्ता का अस्तित्व अपेक्षित नहीं है किन्तु शानमात्र अपेक्षित है क्योंकि व्यवहार के प्रति व्यवहर्तब्य पदार्थ स्वरूपतः कारण नहीं होता किन्तु उसका ज्ञान कारण होता है।
[विशेषणनाश से विशिष्टनाश अवश्य मान्य ] इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि-जैसे विशेषण के अभाव से विशिष्ट का अत्यन्ताभाव होता है उसी प्रकार विशेषण के नाश से विशिष्ट का नाश भो इच्छा विरुद्र होते हुये भी वैशेषिक को मानना होगा। अन्यथा शिखा का नाश होने पर शिखी विनष्टः शिखाधर नष्ट हो गया' यह प्रतीति नहीं हो सकेगी। इसके विरुद्ध यह नहीं कहा जा सकता कि-'विशेष्य के नाश की सामग्री न होने से विशेष्य का नाश नहीं हो सकता'-क्योंकि जैसे विशेषण के प्रत्यन्ताभाव से विशिष्ट का अत्यन्ताभाव होता है उसी प्रकार विशेषण के नाश से विशिष्ट का नाश भी हो सकता है अर्थात् जैसे विशेष्यनाश की सामग्नो विशिष्ट की नाशक है इसी प्रकार विशेषणनाश को सामग्री भी विशिष्ट की नाशक है।
[ परम्परासम्बन्ध से विशिष्टनाश अघटित ] यदि यह कहा जाय कि विशेषण के नाश से विशिष्ट का नाश मानना आवश्यक नहीं है क्योंकि शिखा के नाश होने पर 'शिखी नष्टः' यह प्रतीति परम्परा से यानी स्वप्रतियोगीवस्व सम्बन्ध से शिखावान् में शिखानाश को विषय समझ कर उपपन्न हो सकती है।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर 'हो न स्त:' इत्यादि प्रतीति को स्वपर्याप्स्यधिकरण सम्बन्ध से द्वित्वाभावविषयक मानना सम्भव होने के कारण द्वित्वाच्छिनाभाव-विषयक मानने की प्रावश्यकता नहीं रहेगी; फलतः द्वित्वावच्छिन्नाभाव से उच्छेय को आपत्ति होगी। अत: अब तक के विचारों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि क्षणविशिष्ट वस्तु का ध्वंस होने से अस्थिर एवं विभिन्नक्षणों से सम्बद्ध होने वाली वस्तु का अपने मूलस्वरूप से ध्यान न होने से स्थिर, इस प्रकार स्थिरास्थिर उभयात्मक वस्तु की सिद्धि निर्बाध है ।
[शुद्ध-विशिष्ट भेद पक्ष में शुद्धसत्ता संदेह का निराकरण ) यह विशेष ज्ञातव्य है कि विशिष्ट शुद्ध में भेद मानने वाले वासुदेव सार्दमौम के मतानुसार वस्तु का विशिष्टरूप से नाश और शुद्ध रूप से अवस्थान निर्बाध एवं अनायास सिद्ध है। यदि सावंभौम के मत के सम्बन्ध में यह शंका की जाय कि-'विशिष्ट और शुद्ध में भेट मानने पर घटादि द्रव्य में गुणकर्मान्यत्वविशिष्ट सत्ता का निश्चय होने पर भो शुद्ध सत्ता का निश्चय न होने से सत्ता के संदेह की प्रापत्ति होगी'. तो यह ठीक नहीं है क्योंकि विशिष्ट और शुद्ध में प्रमेदवादी के मत में भी विशिष्ट सत्तानिश्चय में सत्तानिश्चयत्व न होने के कारण विशिष्ट सत्तानिश्चय को सत्तासंबेह के प्रति विशिष्ट सत्तानिश्चयत्वेन पृथक प्रतिबन्धक मानना आवश्यक होता है। अलः सार्वभौमार में भी विशिष्ट सत्तानिश्चय को सत्तासंदेह के प्रति पया प्रतिबन्धक मान लेने से उक्त आपत्ति नहीं हो सकती । कहने का आशय यह है कि 'सत्ताभावः सत्तावत्तिः ' इस प्रकार सत्ताभाव में सत्तरसामानाधिकरप्यावगाही ज्ञान रहने पर 'सत्तावान यह निश्चय सत्ता संदेह का प्रतिबन्धक नहीं होता ।