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स्या क० टोका एवं हिन्दी विवेमन ]
अतः उक्त निश्चयविरहविशिष्ट सत्तानिश्चयत्व रूप से सत्तानिश्चय को सत्तासंदेह के प्रति प्रतिवन्धक मानना आवश्यक रहेगा। किन्तु उक्त निश्चय के रहने पर भी 'सत्ताभायः गुणकर्मान्यत्वविशिस्टसताववृत्तिः यह निश्चय न रहने पर 'गुणकर्मान्यत्वविशिष्टसतावान्' इस निश्चय को सत्तासंदेह के प्रति प्रतिबन्धकता होती है अतः विशिष्टससानिका को सलाह के रिश्रमप्रमिलापकता माननी होगी। क्योंकि-'सत्तानिश्चय को जिस पूर्वोक्त रूप से प्रतिबन्धकता होती है वह रूप उक्त निश्चयसमानकालीन विशिष्ट सत्तानिध्य में नहीं है, अतः उक्तरूप से विशिष्ट सत्तानिश्चय को सत्तासंवेह के प्रति प्रतिबन्धकता नहीं हो सकती।
[शुद्ध-विशिष्ट अभेद पक्ष में गौरव का निरसन ] यवि यह कहा जाय कि-"विशिष्ट और शुद्ध में भेव मानने पर अनन्त विशिष्ट पदार्थ की कल्पना में गौरव होगा अत: विशिष्ट और सुद्ध का भेदपक्ष समीचीन नहीं है"-तो यह काथन भी प्रसंगत है क्योंकि-'विशिष्ट शुद्ध के अभेदबाद में भी शुद्धनिरूपिताधिकरण:ता से भिन्न विशिष्टनिलपित अनन्त अधिकरणता की कल्पना आवश्यक होती है। इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि शुद्ध और विशिष्ट में भेव माने बिना 'शिखर विशिष्टे पर्वते न यतिधी: शिखरविशिष्ट पर्वत में वह्निज्ञान का अभाव है' यह बुद्धि उपपन्न न हो सकेगी क्योंकि उक्त बुद्धि शिखरविशिष्ट पर्वत में विशेष्यतासम्बन्ध से वह ज्ञानाभाव को विषय करती है। किन्त पर्वत में विशेष्यता सम्बन्ध से वह्नि ज्ञान रहने के कारण शिखर विशिष्टपर्वत में उसका प्रभाव नहीं हो सकता क्योंकि-विशेष्यवृत्तिधर्म का विशिष्ट में प्रभाव नहीं माना जाता। कारण गुणकर्मान्यावविशिष्ट सत्ता न गुणवृत्ति' यह बुद्धि विशिष्ट शुद्ध के अभेद वादीयों को प्रमान्य नहीं है। यहां सत्तारूप विशेष्य में गुणवत्तित्व विद्यमान होने से विशिष्ट सत्ता में उसके प्रभाव को नहीं माना जाता।
___ वस्तुतः क्षणानामिदानीमिति धीव्यपदेशनियामकः संबन्धविशेषः क्षणेषु क्षणपरिणतेषु च द्वेधा परेण वक्तव्या, स्वस्मिन्नपि तथाधीव्यपदेशप्रवृत्तः । तथा चान्तरङ्गत्वात् तादात्म्यनियत एव स उचितः, इति सिद्ध क्षणरूपतया जगतः पर्यायत्या क्षणभंगुरत्वम् । तदुक्तं ग्रन्थकृतव धर्मसंग्रहण्याम्-''जं वत्तणादिरूत्रो कालो दव्यस्स चेव पजाओ" इति । "'किमयं भंते ! कालो ति पवुच्चइ ? गोयमा ! जीया देव, अजीया चेव" इति पारमर्षमप्येतदर्थानुपाति 1 यस्मिन्नेव क्षणे घटस्तस्मिन्नेव पट इति तु शब्दमात्रम्, इति न साधारणातिरिकक्षणसाधकम् ।
[सारा जगत् पर्यायतः क्षणभंगुर है ] विशेषण के नाश से विशिष्ट का नाश होता है इस विचार के संदर्भ में वस्तुस्थिति यह है कि 'इवानी' इस बुद्धि और व्यवहार की प्रवृत्ति क्षण और क्षणस्थ दोनों में होती है। बैशेषिक मत में क्षण और क्षणस्थ में भेद होने से उन दोनों के साथ क्षण का दो प्रकार का सम्बन्ध मानना होगा।
१. यद वर्तनादिरूपः कालो द्रव्यस्येव पर्यापः। २. क एष भगवन् ! काल इति प्रोच्यते ? । गौतम ! जीवाश्चैत्र, अजीवाश्चैव ।