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[ शास्त्रवा० स्त०६ श्लो० ३७
जैसे क्षण के साथ क्षण का तादात्म्य संबंध यह क्षण में 'इदानों इस बुद्धि का नियामक है, एवं क्षणस्थ वस्तुओं में क्षण का कालिक सम्बन्ध 'इदानी इस बुद्धि और व्यवहार का मियामक है । इस प्रकार दो संबन्ध के स्थान में उचित यह है कि क्षण और क्षणस्थ वस्तुओं के साथ क्षण का ऐसा हो सम्बन्ध माना जाय जो तादात्म्यनियत हो, क्योंकि-'जो सम्बन्ध तादात्म्य नियत होगा यह अन्तरंग यानी अपथक सिद्ध होने से अकृत्रिम होगा, अतः ऐसा सम्बन्ध एकोपादानोपादानकत्व हो सकता है । क्षण और क्षणस्थ दोनों ही एकोपादन के उपादेय होते हैं। इस प्रकार क्षण और क्षणस्थ वस्तु वोनों में क्षण का जो समानोपादानकत्व सम्बन्ध है वही उन दोनों में 'इदानीं' इस बुद्धि और व्यवहार का नियामक है। इस प्रकार यह क्षण और क्षणस्थ पदार्थों में तादात्म्य नियत सम्बन्ध सिद्ध होता है तो उन दोनों का तादात्म्य सिद्ध होने से क्षण क्षणभंगुर होने के कारण क्षणात्मक पर्यायरूप से क्षणस्य वस्तु की भी क्षणभंगुरता सिद्ध होती है।
[ काल जीवाजीव के वर्तनापर्याय रूप है ] क्षण और क्षणस्थ वस्तु के तादात्म्यनियत सम्बन्ध का समर्थन धर्मसंग्रहणी' ग्रन्थ में ग्रन्थकार श्रीमद् हरिभद्रसूरि महाराज के ही शब्दों से सम्पन्न होता है-उन के शब्द का स्पष्टार्थ यह है कि 'वर्तनादि रूप काल यह द्रव्य का ही पर्याय है। इस प्रकार काल को मुख्य का पर्याय कहने से दोनों का तादात्म्य स्फुट रूप से प्रकट होता है, क्योंकि-'द्रव्य और पर्याय का तादात्म्य सुप्रसिद्ध है। इस तथ्य को श्री गौतम गणधर के काल सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में परषि भगवान महाबोर का हर उत्तर वचन भी अनुमोदक है कि जीव और अजीव ही काल है। ऐसा मानने पर यह प्रश्न हो सकता है कि यदि क्षण और क्षणस्थ अभिन्न है सो क्षणस्थ के भेद से क्षण का भेव मानना भी प्राव. श्यक होने से जिस क्षण में घट होता है उसी क्षण में पट होता है। इस प्रकार क्षणस्थ घट-पट के भेद का और क्षण के. ऐक्य का प्रतिपादक यह व्यवहार किस प्रकार उत्पन्न होगा? इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर यह है कि उक्त व्यवहार केवल शब्द मात्र है । अर्थात् उसका अर्थ बाधित है । अत: वह विभिन्न वस्तुओं से सम्बद्ध अतिरिक्त क्षण का साधक नहीं हो सकता।
प्रतियन्ति च लोका अपि निस्याऽनित्यत्वं वस्तुनः-'घटरूपेण मृद्रव्यं नष्ट, मृद्रपेण न नष्टम् इति, 'घटरूपेण घटो नष्टः, न तु मृद्रपेण' इत्यादि । अत्र च 'दण्डत्वेन दण्डे घटहेतुत्वम्, न तु द्रव्यत्वेन' इत्यत्रेवावच्छिन्नत्वं तृतीयाः, स्वाश्रयन्यूनवृत्तरेवावच्छेदकत्वमित्यस्य च (नियमस्य) प्रकृतदृष्टान्त एव भङ्गः । अथाऽन्यथासिद्धिनिरूपकतानवच्छेदकनियतपूर्ववर्तितावच्छेदकरूपवत्त्वं हेतुत्वं नाऽव्याप्यवृत्तिः, इति तत्र 'दण्डे' इति दण्डवृत्तित्त्रम् , 'दण्डत्वेनेति च दण्डत्वाऽभिन्नत्वम् , 'न द्रव्यत्वेनेति च द्रव्यत्वाभेदाभावो भासत इति घेत् ? न, विशिष्टरूपेऽविशिष्टरूपाऽभेदान्वयस्य निराकांक्षत्वात् , अन्यथा 'दण्डत्वं घटहेतुत्वम्' इत्यस्यापि प्रसङ्गान् !-"तथाप्येकचिशेष्यकत्वानुरोधाद् 'न द्रच्यत्वेन' इत्यत्र द्रव्यत्वावच्छिन्नस्वाभाव एवार्थः । न हि 'दण्डत्वेन दण्डो घटहेतुर्न द्रव्यत्वेन' इत्पत्र 'दण्डवृत्तिघटहेतुत्वं दण्डस्वावच्छिन्न, दण्डवृत्तिस्तदभावश्च द्रव्यत्वावछिन्न' इति भिन्नाश्रयो बोधोऽनुभूयते, किन्तु