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। शास्त्रवात स्म ५ श्लोक ३९
पद्यते, तस्मादत्रापि-विज्ञानवादेऽपि, प्राज्ञस्यापि कल्पनानिपुणस्यापि पुंसः, निवेश: कदाग्रहो न युज्यते ॥ ३६॥
हंसः किं समपद्म श्रयति परिंग़लत्पर्णमर्णः पिबेद् वा ? चांडालानां पिपासाकुलितमतिरपि श्रोत्रियः किं कदाचिद् । दुष्टाना हन्त ! गोष्ठीमनुसरति रसात् सज्जनः किं गतार्थी।
त्याज्यस्तज्जैनतकरयमिह निहतो विज्ञ ! विज्ञप्तिबादः ॥ १ ॥ अभिप्रायः सुरेरिह हि गहनो दर्शनततिनिरस्या दुर्धपी निजमतसमाधानविधिना । तथाप्यन्तः श्रीमन्नयविजयविनाहिभजने न भग्ना चेद् भक्तिन नियतमसाध्यं किमपि मे ॥ २ ॥
यस्यासन गुरवोऽत्र जीतविजयाः प्राज्ञाः प्रकृष्टाशया
भ्राजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाश्च विद्याप्रदाः। प्रेम्णा यस्य च सम पद्मविजयो जातः सुधीः सोदर
स्तेन न्यायविशारदेन रचितरतर्पोऽयमभ्यस्यताम् ॥ ३ ।। ॥ इति पण्डित श्रीपद्मविजयसोदरन्यायविशारदपण्डितयशोविजयविरचितायां
स्याद्वादकल्पलताभिधानायां शास्त्रवासिमुच्चयटीकायां पञ्चमः स्तबकः ॥
'जगत केवल विज्ञानमात्रात्मक है-विज्ञान से अतिरिक्त किसी वस्तु की सत्ता नहीं है' यह वाद उक्तरीति से विचार करने पर उपपन्न नहीं होता । अतः कल्पना में अत्यन्त निपुण चतुर पुरुष को विज्ञानवाद में कदाग्रह करना उचित नहीं है ॥३९।।
व्याख्याकार ने प्रस्तुप्त स्तबक की व्याख्या समाप्त करते हुए एक उपसंहार श्लोक प्रस्तुत किया है जिस का अर्थ इस प्रकार है -
हंस उस पद्मसदन-सरोवर का प्राश्रय नहीं लेता जिसमें कमल के पत्ते गिरने लगते हैं। वेदज्ञपुरुष प्यास से अत्यन्त पीडित होने पर भी चाण्डाल का पानी कभी नहीं पीता। जब पक्षी लेकर एक वेदज्ञ विद्वान तक के व्यवहार की यह स्थिति है तो कोई भी सज्जन पुरुष दुर्जनों को निरर्थक गोष्ठी का प्रीतिपूर्वक अनुसरण कैसे कर सकता है ? अतः विज्ञजनों को इस विज्ञप्तिवाद का पूर्ण त्याग कर देना चाहिये, क्योंकि इस ग्रन्थ में अन सिद्धान्त के अकाटय तकों से इस विज्ञप्तिवाद का पूर्णरूप से निराकरण किया गया है।
[ 'अभिप्रायः' ० इत्यादि दो श्लोक का अर्थ प्रथम स्तरक में बनाया गया है ]
॥ स्तबक-५ समाप्त ।।