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॥ अहम् ॥ षष्ठः स्तबकः
[व्याख्याकार मंगलाचरण ] दृप्यद्यन्नखदर्पणप्रतिफलद्वक्त्रेण वृत्रद्रुहा,
शोभा कापि दशावतारसुभगा लब्धाऽनुजस्पर्धिनी । मुक्तिद्वारकपाटपाटनपटू दौर्गत्यदुःखच्छिदौ,
___ तावंही शरणं भजे भगवतो वीरस्य विश्वेशितुः ॥१॥ यस्नाननीरेण नारायणस्य जरा भटानां न पराभराय । जाग्रत्प्रभावं भगवन्तमेतं शखेश्वराधीश्वरमाश्रयामः ॥२॥
[ धीर भगवान के चरण शरण की भावना ] जिन चरणों के देदीप्यमान नस्वदपंण में अपना मुख प्रतिबिम्बित होने से वृत्रद्रोही-इन्द्र को अपने अनुज विष्णु की स्पर्धा करने वाली, दश अवतारों के सौभाग्य से सम्पन्न अनिर्वचनीय शोभा प्राप्त हुई थी, वैसे विश्व के शासक स्वामी भगवान महावीर के दो चरण मुक्ति नगरी के प्रवेशमार्ग पर लगे हुए कियाउ को सोडने में कुशल है और दुर्गति=दुष्टयोनि-दुष्टकुलोत्पत्ति-प्रयुक्त दुःखों को नष्ट करने वाले होते हैं-उन चरणों की मैं शरण ग्रहण करता हूं ॥१॥
जिसके अभिषेक जल से नारायण =विष्णु को सेना के सुभटों को जरासंध-प्रयुक्त जरा विद्या पराभूत नहीं कर पायी अर्थात् जराविद्या से निष्पन्न पराभव यानी मूच्र्छा नहीं टिफ सकी ऐसे उल्बण प्रभाव से सम्पन्न शलेश्वर तीर्थाधिपति भगवान पार्श्वनाथ का हम आश्रय करते हैं ।। २।।
[ भगवान के चरण की उपासना क्यों ? ] इस प्रकार ध्याख्याकार ने प्रथम पत्र में भगवान महावीर को विश्वेशिता कहकर विश्व का मार्गदर्शक बताया और उनके चरणों को शरण रूप से आथयणीय बताया। चरणों को महिमा यह कह कर व्यक्त को है कि भगवान ने सर्वज्ञता प्राप्त कर जब प्रथम धर्मदेशना की उस समय सभी देवताओं के साथ देवराज इन्द्र भी उपस्थित थे। उन्होंने भगवान के सन्मुख न चरणों पर विनम्र भाव से जब शिर झुकाया तब चरणों के चमकते हुये निर्मल दशों हो :" दर्पण में उनका मुख प्रतिबिम्बत हो उठा। फलतः एक ही इन्द्र वशावतारी हो गया और उन ए उवतारों में देवराज की शोभा भगवान के चरणों के नखदर्पण को चमक से अनेक गुण हो उठी थी । अत एव वह शोभा