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[ शास्त्रवार्त्ता ० स्त० ६ श्लो० १
उनके अनुज विष्णु को स्पर्धा करने वाली थी, क्योंकि विष्णु के भी दश अवतार हैं किन्तु उन में चार मनुष्येतर योनि में थे जैसे मत्स्य, कच्छप, वराह श्रौर सिंह । एवं छः नर योनि में हुये, जैसे- वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध श्रीर कल्की । मानवेतर योनि के कारण इन सभी अवतारों में विष्णु की शोभा सुभग नहीं है । किन्तु इन्द्र के उक्त प्रतिबिम्बमूलक वश श्रवतारों की शोभा सुभग है। इस कथन से भगवान के चरणों की महिमा परिस्फुट होती है। भगवान के चरणों की महिमा बताने के लिये व्याख्याकार ने दो और बातें कही है, एक यह कि भगवान के चरणों का ध्यान करने से मुक्ति के द्वार पर लगा हुआ कर्मबन्धका कारण विटा है और दूसरी बात यह है कि दुष्टयोनि और दुष्टकुलस्वरूप दुर्गति में उत्पन्न होने से जीव को जो अनेक प्रकार के दुःख होते हैं उन दुर्गति दुःख का भी विध्वंस - विष्कम्भण हो जाता है । क्योंकि जिन कर्मों के उदय से जीव को दुर्गति में जाना पड़ता है- भगवान के चरणों के ध्यान से उन कर्मों का ही उन्मूलन हो जाता है ।
[ शंखेश्वर पार्श्वनाथ की अजीव महिमा ]
दूसरे पद्य में व्याख्याकार ने इस घटना का स्मरण कराया है कि जब श्रीकृष्ण का जरासंध के साथ युद्ध हो रहा था तब जरासंघ ने कृष्ण के सैनिकों में मूर्च्छा उत्पन्न करने वालो जरा-विद्या का प्रयोग किया था जिससे उनके संनिक मूच्छित होकर पराभव की स्थिति में पहुंच रहे थे। उस समय श्रीकृष्ण के चचेरे भाई श्री नेमनाथ ने श्रीकृष्ण को यह सूचित किया कि "वे पाताल लोक की पद्मावती देवी से भगवान पाश्यंनाथ की प्रतिमा प्राप्त कर उसका अभिषेक करें और उस अभिषेक जल से सैनिकों को सिंचित करें। इस प्रयोग से श्रीकृष्ण के सैनिकों पर जरा का आक्रमण दूर हो जायगा ।" श्रीकृष्ण ने श्री नेमनाथ के निर्देशानुसार वह प्रयोग ( विधान ) किया और उससे जराविद्या वहां से भाग जाने पर उनके संनिक समान हो गए और जराविद्या से अभिप्रेत पराभव से बच गये। इस प्रकार भगवान पार्श्वनाथ का प्रभाव अत्यन्त जागरूक है । और वे भगवान शङ्खेश्वर तीर्थ के अधीश्वर हैं । 'शंखेश्वर' शब्द से इस प्रसंग को सूचना है कि पार्श्वनाथ भगवान के स्नात्र जल का सेना ऊपर सिंचन करने के बाद श्रीकृष्ण ने जोरों से शंखनाद बजा कर सेना में युद्ध लिये उत्साह को संचारित किया था। जिस स्थल पर यह शंख बजाया गया था वह विशेष स्थलशंखेश्वर तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है । यतः उनके नाम से ही वह तीर्थ व्यवहृत होता है अत एव भगवान को शंवेश्वर तीर्थ का अधीश्वर कहा जाता है । शंखेश्वर के अधीश्वर को श्राश्रयणीय बताकर यह संकेत किया गया है कि जिस प्रकार शंखेश्वर पादवनाथ भगवान के प्रभाव से जराविद्या - निष्पन्न भयंकर द्रव्यमूर्छा नष्ट हो गई उसी प्रकार भगवान पार्श्वनाथ का आश्रय लेने से अविद्या मोह-अज्ञान से निष्पन्न भयंकर भावमूर्च्छा उन अविद्यादि के साथ नष्ट हो सकती है ।
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प्रथम कारिका में चौथे स्तबक को अन्तिम कारिका में जिसका निर्देश किया गया था उसका प्रतिपादन किया गया है
'सर्वमेतेन० ४-१३७] इत्याद्यतिदिष्टमभिधित्सुराह—
मूलम:
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प्रोक्तं पूर्वमन्त्रैव क्षणिकत्वसाधकम् । तोरयोगादि तदिदानों परीक्ष्यते ॥ १ ॥