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स्या 2 टीका एवं हिन्दी विवेचन]
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में स्वभावतः क्लिष्ट चित्तक्षण का ही उपपादक होगा। प्रतः विज्ञानवावी के मत में मुक्ति उपपन्न न हो सकेगी। यदि इसके उत्तर में विज्ञानवादी की ओर से यह कहा जाय कि-"संसार काल का उपा-त्यक्षण मुक्ति का पूर्व तृतीपक्षण ऐसे प्रत्यक्षण का जनक होता है जो उत्तर काल में क्लिष्टचित्तक्षण के मन में असमर्थ होता है उस रीति से मुक्ति की अनुपपत्ति नहीं हो सकती"तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि इस मान्यता के सम्बन्ध में यह प्रश्न हो सकता है कि मुक्ति का पूर्वतृतीयक्षण क्लिष्टचित्त के उत्पादन में असमर्थ अन्त्यक्षण को फंसे उत्पन्न करता है ? यदि इस उत्पत्तिको स्वाभाविक मानी जायगी तो मक्ति की भी स्वभाव से ही उपपत्ति सम्भव हाने से मुक्त के लिये प्रवृत्त्यादि का उपपादन असम्भव हो जायगा। यदि प्रवृति का उपपावन भ्रम द्वारा किया भी जाय तो मुक्ति के उपाय का प्रतिपादन करने के लिये शास्त्र का प्रणयन असङ्गत होगा । अतः विज्ञानवादी की मुक्ति केवल कल्पना पर आधारित है, वह प्रानन्दमयी नहीं हो सकती । अतः मुक्ति के सम्बन्ध में यह सब कथन अकिश्चितकर है ।। ३७ ।।।
३८ वीं कारिका में इसी बात की पुष्टि की गई है-- इदमेवाहमूलम्-मुक्त्यभावे च सर्वच ननु चिंता निरधिका ।
भावेऽपि सर्वदा तस्याः सम्यगेतदिचिन्त्यताम् ॥३८॥ मुक्त्यभावे च तपस्विनां सर्वैव चिंता-तत्वविचारणा निरथिंका, सर्वस्या एव तस्यास्तदेकपरमप्रयोजनत्वात । बोधरूपायास्तस्या मुक्तेः सर्वदा भावेऽपि निरर्थिका चिन्ता, साध्यस्य सिद्धत्वात् । एतत् सम्या विचिन्त्यताम् ॥ ३८ ॥
[मुक्ति के अभाव में तत्वचिन्ता व्यर्थ ] उक्त रोति से मुक्ति को सिद्धि न होने पर तपस्वीओं की सारी चिन्ता-तत्त्वचिन्तन का सम्पूर्ण प्रयास निरर्थक हो जायगा । क्योंकि सारी तत्वचिन्ता का एकमात्र मुक्ति ही परम प्रयोजन होती है। अतः उस के अभाव में निष्प्रयोजन होने से तत्वचिन्ता की निरर्थकता अनिवार्य है । यदि मुक्ति को बोधरूप स्वीकार कर लिया जाय तो बोध के सार्वदिक होने से मुक्ति भी सार्वदिक होगी । अतः इस पक्ष में भी तत्त्वचिन्ता निरर्थक होगी। क्योंकि तत्त्वचिन्ता से जो साध इन सब बातों का विज्ञानवादी को आग्रहमुक्त होकर विचार करना आवश्यक है ।। ३८ ॥
३६ वी कारिका में विज्ञानवाद के विषय में किये गये सम्पूर्ण विचारों का उपसंहार किया गया है
उपसंहरनाह -- मूलम्-विज्ञानमात्रवादोऽयं नेत्य यक्त्योपपद्यते ।
___ प्राज्ञस्यापि निवेशो न तस्मादत्रापि युज्यते ॥ ३९ ॥ विज्ञानमात्रवादो यद्-यस्मात् इत्थम्-उक्तरीत्या युक्त्या-न्यायेन विचार्यमाणः नोप
1सिद्ध