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[ शास्त्रवार्त्ता० त० ५ श्लो० ३७
तदिति तद्धेतुः सदैव क्लिष्टतापत्तेः, मुक्तिग्राच्य क्षणस्यापि क्लिष्टत्वेनोत्तर क्लिष्ट क्षण जननस्वभावत्वात् इति हेतोः, मुक्तिर्न युज्यते भवताम् । अथ संसारपान्त्यक्षणेनोत्तर क्लिष्टवित क्षणजननाऽसमर्थस्यैवान्त्य क्षणस्य जननाद् न दोष इति चेत् ? । कुत एतत् १ | स्वभावादिति चेत् ? न, मुक्तेः स्वभावत उपपत्ती तदर्थं प्रवृत्यनुपपत्तेः । भ्रमात् प्रवृतौ च तदर्थशास्त्रप्रणयनानुपपत्तेः । तस्मात् काल्पनिकीयं मुक्तिः, न तु परमानन्दादिमयीति न किश्चिदेतत् ॥३७॥
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यदि विज्ञान में सकर्मकत्व भ्रान्तिरूप विलष्टता के कारणभूत वासना को असत् माना जायगा अर्थात् यदि असत् भी वासना विलष्टता का कारण है तो असत् वासना के समान शशविषाणादि में सो कारणत्व की आपत्ति होगी ।
[ प्रत्येक असत् कार्यजनक नहीं होता बौद्ध ]
यदि इसके उत्तर में विज्ञानवादी की ओर से यह कहा जाय कि "जैसे सत्कारणपक्ष में भी सभी सत् कार्य का जनक नहीं होता किन्तु कोई सत् किसी कार्य का ही जनक होता है, जैसे न्यायमत में प्रणुपरिमाणाः, अद्वैतवेदान्त में तुरीय ब्रह्म, सांख्य मत में पुरुष सत् होते हुये भी कार्य का जनक नहीं होता तथा जो सत् जनक भी होता है वह भी सब कार्यों का जनक नहीं होता। उसी प्रकार असत् कारणपक्ष में भी यह बात कही जा सकती है कि सब प्रसद्वस्तु कार्य की जनक नहीं होती है- . जैसे शशविषाणादि, एवं जो प्रसत् जनक होता है वह भी सब कार्यों का जनक नहीं होता किन्तु कार्यविशेष का ही जनक होता है । इसलिये यह कथन सर्वया न्यायतः उपपन्न है कि अविद्या शब्द से trafate होने वाली अनादि वासना हो लिष्टचित्त को उत्पन्न करने वाला अतिरिक्त कारण है और उसकी निवृत्ति ज्ञानाऽद्वय रूप तत्त्वज्ञान से होती है क्योंकि असत् को ज्ञान से निवृत्ति नियमप्राप्त है । यशः शुक्ति के तत्वज्ञान से असत् रजत की निवृत्ति देखी जाती है। अतः यह पूर्णतया युक्तिसंगत है कि प्रकाशमात्रात्मकज्ञान भी संसारावस्था में अविद्याशक्ति को प्रबलता से अन्य प्रकार अर्थात् सकर्मकरूप में प्रकाशित होता है। जैसा कि धर्मोतर ने कहा है कि- "अविद्याशक्ति के सहयोग से ज्ञान असत्य अर्थ का ग्राहक होता है और अविद्यावश हो ग्राह्य ग्राहकभाव से गृहीत होता है । अत: विज्ञानवाद नितान्त निर्दोष है"- यह ठीक नहीं है क्योंकि अविद्या की निवृत्ति को असत् यानी असत्य मानने पर अविद्या के समान हो उसकी भी निवृत्ति होने से मुक्त पुरुष में पुनः संसारित्व की प्रापत्ति होगी और सत् मानने पर द्वैतापत्ति होने से ज्ञानाद्वैतवाद का भंग होगा । यदि अविद्या निवृत्ति को ज्ञानरूप ही माना जायगा तो ज्ञान के संसारदशा में मुक्ति के भी सद्भाव की आपत्ति होगी।
[ पूर्ववर्ती क्लिष्टचित्तक्षण अतिरिक्त हेतु नहीं बन सकता ]
यदि उक्त आपत्ति के परिहार के लिये विज्ञानवादी की ओर से यह कहा जाय कि 'पूर्ववृत्ति विष्टचित्तक्षण हो उत्तरवर्ती क्लिष्ट चित्त का चित्तसामान्य के हेतु से अतिरिक्त हेतु है।' तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि यदि पूर्वयत चित्तक्षण बोधात्मक होने से ही उत्तरकाल में क्लिष्टचित्त का हेतु होगा तो सदा अर्थात् मुक्तिकाल में भी चित में क्लिष्टता की आपत्ति होगी अर्थात् मुक्ति काल में चित्त क्लिष्ट न हो सकेगा क्योंकि मुक्त का पूर्वबत्तों वित्तक्षण भी क्लिष्ट होने से उत्तरकाल