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स्याक० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
[चित्त क्लिष्टता अकारण नहीं हो सकती ] विज्ञानवादी का उक्त कथन आपाततः ठोक मान लेने पर भी यह बात तो माननी ही पड़ेगी चित्त को क्लिष्टता यानी ग्राह्य-कभाव के अभाव में भी तद्रप से विज्ञान की भ्रमात्मक अनुभूति को अक्लिष्टचित्त =चित्तसामान्यशब्दोल्लेस्सी चित्तानुभव के हेतु से अतिरिक्त हेतु से अवश्य उत्पन्न होने वाली है क्योंकि तिमिर के अभाव में इन्दुवय का दर्शन एवं कामलादि के अभाव में शंख के पोलेपन आदि का दर्शन नहीं देखा जाता । अतः यह नियम सिद्ध होता है कि किसी अर्थ के सामान्यशब्दोल्लेखो अनुभव से अतिरिक्त जो उस अर्थ का अनुभव होता है वह सामान्यशब्दोल्लेखी अनुभव के कारण से अतिरिक्त कारण से उत्पन्न होता है। अतः जैसे 'एकः चन्द्रः' इस सामान्य शब्द से उल्लिख्यमान एकचन्द्र दर्शन से भिन्न 'दौ चन्द्रों' इन शब्दों से उल्लित्यमान चन्द्रद्वयवर्शन, सामान्यचन्द्रशब्द से उल्लिख्यमान चन्द्रदर्शन के कारणभूत नेत्रादि से भिन्न तिमिरदोषरूप कारण से अन्य होता है, उसी प्रकार क्लिटबोध का मो, अक्लिटबोध चित्तसामान्य के कारणभूत चित्तमात्र से अतिरिक्त कारण मानना आवश्यक है । अतः चित्त को क्लिष्टता को स्वाभाविक-अकारणक बताना अयुक्त है ।। ३६ ॥
उपर्युक्त के प्रतिकार में विज्ञानवादी को ओर से यदि यह कहा जाय कि-'जैसे चन्द्रद्धय के ज्ञान में उपप्लववासना यानी-अपने उत्पाद्य बोध के समीपत्तिकाल में हो विलीन होने वाली वासना कारण होती है उसी प्रकार विज्ञान में सकर्मकत्वको भ्रान्ति में अनादि वासना कारण होती हैं-तो वह कथन उस वासना के सत्त्व पक्ष में द्वैतापत्ति से प्रयुक्त होने पर भी उसके असत्त्व पक्ष में भी इस कथन को प्रयुक्तता है, यह ३७ वीं कारिका में बतायी जा रही है
ननु द्विवन्द्रादिज्ञान उपलबवासनायन सकर्मकत्वभ्रान्तावप्यनादिवासना हेतुभूतोक्नैवेति चेत् ? सा किं सती, असती ना ?। आय द्वैतापत्तिः । अन्त्ये त्याह-- मूलम् --न चासदेव तहेतुर्योधमात्रं न थापि तत् ।
सदेच श्लिष्टतापत्तरिति मुक्तिर्न युज्यते ।। ३७ ॥ न चासदेव-तुच्छमेव सद्धेतुः, शशविषाणादेराय तवासनात् । अथ सदिवासदपि किञ्चिदेव कस्यचिजनकम् , एवं पानाधविद्याख्यवासनैव बिलप्टचित्तजननी, नियतते च साऽद्वयतत्त्वज्ञानात् , असतो ज्ञाननिवत्यत्व नियमात , असत्यरजताकारे शुक्तितत्त्वज्ञाननिवरयंत्वदर्शनात् । अत एव प्रकाशमात्रमपि संसारदशायामविद्याशक्तिप्राबल्यादन्यथा प्रकाशते । तदाह धर्मोत्तर:-"तस्मादविद्याशक्तियुका ज्ञानमसत्यरूपमादर्शयति, इत्यविद्याक्शात् प्रकाशत इत्युच्यते" इत्यनक्द्यमिति चेत् ? न, अविद्याया इव तन्निवृत्तेरप्यसत्त्वे तन्निवृत्या मुक्तस्य पुनः संसारितापत्तेः, सत्वे च द्वैतापत्तेः, ज्ञानरूपत्वे च ज्ञानमात्रस्य सर्वदा सत्वेन सदा मुक्त्यापत्तेः।
'अस्तु तर्हि प्राच्यः क्लिष्टचित्तक्षण एवोनविलष्टचित्तहेतु रिन्यवाह-न वायि बोधमात्रं