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[ शास्त्रवात०] स्त० ५ श्लो० ३५-३६
में बाह्यार्थ सिद्धि की प्रापत्ति रूप दोष नहीं हो सकता ।' -ग्रन्थकार ने इसका उत्तर देते हुये कहा है कि यदि क्लिष्टचित्त को चित्त से अन्यूनमनतिरिक्त माना जायगा तो क्लिष्टचित भी चित्त के समान सतत अविच्छिन्न प्रवाहशाली होगा । अत एव क्लिष्टचित के प्रवाह का विच्छेद सम्भव न होने से मुक्ति का विचार किस प्रकार हो सकता है ? ||३४||
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३५ व कारिका में मुक्ति के उपर्युक्त प्राक्षेप के उपर इस प्रकार की शंका प्रदर्शित की गई। है कि कोई द्रव्य जैसे स्वभावतः क्लिष्ट मलीन होता है यथा नीलोद्रव्य और कोई स्वभावतः निर्मल होता है जैसे प्रदोष, उसी प्रकार कोई चित्त स्वभावत: क्लिष्ट होता है और कोई चित्त स्वभावतः अक्लिष्ट होता है, अक्लिष्ट चित्त ही मोक्ष है
ननु स्वभावादपि किञ्चिदेव नील्यादिवत् क्लिष्टं किञ्चिदेव च प्रदीपादिवदक्लिष्टं चि भविष्यतीत्याशङ्कते -
मूलं असत्यपि च या बाह्ये ग्राथे ग्राहकलक्षणे |
द्विचन्द्रभ्रान्तिवद् भ्रान्तिरियं नः क्तेति चेत् ॥ ३५ ॥
असत्यपि वा ग्राह्ये ग्राहकलक्षणे च परस्परापेक्ष (प्रकल्पिता ग्राह्य ग्राहक- भावावगाहिनी 'नीलमहं वेद्मि' इत्याद्याकारा या द्विचन्द्रभ्रान्तिवद् आन्तिः इयं = अनुभवसिद्धा नः अस्माकं क्लिष्टता । अत्रोत्तरम् - इति चेत् यद्येवमुपगम्यते । ३५॥
ग्राह्य और ग्राहक इन दोनों की परस्पर अपेक्षा से ही सम्भव होता है। किन्तु विज्ञानवादी के मत में ज्ञानभिन्नग्राह्य और उसका ग्राहक दोनों के असत् होने पर भी ग्राह्य ग्राहकभाव के रूप में विज्ञान की चन्द्रको भ्रान्ति के समान 'नीलमहं वेति' इस प्रकार भ्रान्तिरूप अनुभूति होती है । विज्ञान का ग्राह्यग्राहकभाव रूप में यह अनुभव ही उसकी क्लिष्टता है और यह क्लिष्ट सम्पूर्ण चित्रात्मक विज्ञानों में न होकर कतिपय चित्रात्मक विज्ञानों में ही होती है। अतः उक्तरूप में अनुभूयमान विज्ञानरूप क्लिष्टचित्त हो बद्धचित्त है और उक्त रूप से अननुभूयमान विज्ञान अक्लिष्टचित्तरूप है। वही मोक्ष है
विज्ञानवादी की इस शङ्का के उत्तर का संकेत कारिका के ' इति चेत्' शब्द से किया गया है३६ वीं कारिका में पूर्व कारिका में किये गये संकेत अनुसार उत्तर का प्रतिपादन किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है
मूलं - अस्त्वेतत्किन्तु
तद्धेतुभिन्नस्वन्तरोद्भवा
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इयं स्यात्तिमिराभावे न हो दुयदर्शनम् ॥ ३६ ॥
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अस्त्वेतदायातातः किन्त्वियं क्लिष्टता तद्धेतुभिन्नहेत्वन्तरोद्भवा अविलष्टचित्तहेत्व तिरि क्तहेत्वपेक्षा स्यात् । हि यतः, तिमिराभाव इन्दुद्वयदर्शनम् न दृष्टम्, शङ्खीतिमादिदर्शनहेतुकामाद्युपलक्षणमेतत् । इत्थं च यथा तिमिरादि एकचन्द्रादिबोध हेतुभ्योऽधिकम्, तथा सत्यबोथहेतोधमात्रादधिकेन क्लिष्टबोधहेतुना भवितव्यमित्यैदं पर्यम् ॥ ३६ ॥