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स्मा० ० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
होगी तो क्लेश उसका प्रतियोगी होगा। यदि क्लिष्टभिन्नता रूप होगी तो क्लेश उसका प्रतियोगितावच्छेदक होगा। दोनों ही दशा में विज्ञान से उसका पृथग्भाव आवश्यक होने से ज्ञानाद्वैत के साम्राज्य का उच्छेद हो जायगा ।
[ 'बायायक्षा शव पं. औचित्य की उत्पत्ति ] व्याख्याफार ने कारिका में आये 'बाह्यार्थता' शब्द के सम्बन्ध में एक विचार करते हुये यह कहा है कि उक्त शब्द में 'तल' प्रत्यय की, प्रकृतिभुत 'बाह्यार्थ' शब्द के अर्थमात्र में उसी प्रकार निरूतुलक्षणा है जैसे तत्स्वभावत्व शब्द में 'त्व प्रत्यय की 'तत्स्वभाव' रूप प्रकृत्यर्थ में निरूवलक्षणा होती है । यद्यपि निरूढलक्षणा मानने पर यह बाधा हो सकती है कि-निरूवलक्षणा तो विशेष प्रयोगों में नियन्त्रित होती है। 'बाहार्यता' शब्द ऐसा कोई प्रयोगविशेष नहीं है, अतः उस में निरू. ढलक्षणा का प्रसार सम्मव नहीं है' किन्तु इस का उत्तर यह है कि प्रयोगविशेष में निरुदलक्षणा के नियन्त्रण का नियम लौकिक प्रयोगों तक ही सीमित है-बाशार्थता' शब्द 'सस्पदप्ररूपरपता' के समान आर्ष है प्रत एव जैसे यहाँ 'तल' प्रत्यय प्रकृत्यर्थ मात्र में निरूढलाक्षणिक है उसी प्रकार बाह्यार्थता शब्द भी आर्ष होने से उसमें भी 'तल्' प्रत्यय को निरूद्धलाक्षणिक मानने में दोष नहीं हो सकता। सच बात तो यह है कि निरूढलक्षणा न मानकर यदि 'बाह्यार्थता' शरद का यथाश्रुत अर्थ ही लिया जाय तो भी कोई अनुपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि उसका यथाश्रुत अर्थ है 'बाहात्वसमानाधिरणअर्थता'। यदि वाद्यवसमानाधिकरण अर्थता का प्रापादान किया जाता है तो उसका भी फलतः पर्यवसान अर्थता में बाह्यत्वसामानाधिकरण्य के अ पादन में ही होता है क्योंकि जहाँ विशिष्ट आपाच होता है वहाँ विशेष्य उभय सम्मत होने पर विशेषण ही पापाद्य होता है ।। ३३ ।।
३४वीं कारिका में चित्त की क्लिष्टता को पटादि क्लिष्टता से विलक्षण बताते हुए उससे
कारणभस बाझार्थ की सिद्धि की असम्भाव्यता की शंका उठा कर उसका निराकरण किया गया है
दनु पटादेः क्लिष्टतावद् न चिनक्लिष्टता येन तञ्जनकबाह्यार्थसिद्धिः स्यात्, किन्त्वन्यथा, इत्याशङ्कतेमूलम्--प्रकृत्यैव तथाभूतं तदेव क्लिष्टनेति चेत् ?
तदन्यूनातिरिक्तत्वे केन मुक्तिर्विचिन्त्यताम् ॥ ३४ ॥ प्रकृत्यैव-स्वभावेनैव, नयाभूतं-क्लिष्ट चित्तं, तदेव क्लिष्टता नातिरिक्तेति न दोषः । अत्रोत्तरम् तदन्यूनातिरिक्तत्वबोधाद् न्यूनस्याधिकस्य वाऽभावे चित्तमात्राश्चित्तभावे सति केन मुक्तिः १ क्लिष्टस्य चित्तस्य सभावतस्तथाभूतस्य प्रवाहविच्छेदायोगादिति भावः ॥३४॥
[चित्त की क्लिष्टता सहन होने पर मुक्ति का अयोग] विज्ञानवादी का यह कहना है कि-विज्ञान की क्लिष्टता प्राकृतिक=सहज है। अर्थात् चित्त की क्लिष्टता क्लिष्टचित से भिन्न नहीं है अत एव चित्त के समान उसको क्लिष्टता भी सहज हो है । अतः उससे उसके कारण का अनुमान नहीं किया जा सकता । अत एव उसके कारण रूप