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[ शास्त्रबार्ता० स्त० ५ श्लो० ३३
[क्लिष्टता के हेतु ज्ञान से अभिन्न नहीं है ] 'रागादि क्लेशों का वर्ग क्लिष्ट विज्ञानस्वरूप ही है उससे भिन्न नहीं है। अश्लिष्टविज्ञान जो मुमुक्ष को अभीष्ट है उसको अक्लिष्टता पिलष्टभिन्नतारूप है न कि विज्ञान से पृथक् क्लेशादि का अभावरूप है। अतः उक्त दोष नहीं हो सकता, क्योंकि अक्लिष्टविज्ञान एक ऐसी प्राप्य वस्तु है जो संसारवशा में नहीं है-अतः अपवर्ग के लिये प्रवृत्ति की अनुपपत्ति नहीं हो सकती।' इसके उत्सर में ग्रन्थकार ने यह कहा है कि संसारी चित्त में जिस कारण से क्लिष्टता होती है उस कारण को ज्ञान के समान ही पृथक वस्तु मानना होगा। यह ठीक उसी प्रकार जैसे पटादि में नीलाद्यात्मक क्लिष्टता का जनक=उपरचक नीलीद्रव्य की पटादि से पृथक सत्ता होती है, क्योंकि क्लिष्टता पलेश के आश्रय और प्राश्रय से भिन्न कारण उभय से जन्य होती है ॥३२।। ३३वीं कारिका में इसी विषय को स्पष्ट किया गया है-- मूलम्-मुक्तौ च तस्य भेदेन भावः स्यात्पदशद्विवत् ।
ततो पाह्यार्थतासिद्धिरनिष्टा संप्रसज्यते ॥ ३३ ॥ मुक्तौ च तस्य-क्लिष्टतापादकस्य, भेदेन-पृथग्भावन भावः स्यात्-स्वरूमाविर्भावलक्षणा शुद्धिः स्यात् । किन ? इत्याह-पशुभियम-यथा पानील्यादिद्रव्यसंसर्गापगमे प्राक्तनस्वरूपाविर्भावस्तद्वदित्यर्थः। यत एवम् ततो वाह्मार्थतासिद्धिः अनिष्टा भवदनभिमता संप्रसज्यते । तेनाऽक्लिष्टत्वं क्लेशगहित्यं क्लिष्टभिन्नत्वं वोच्यताम् , नोभयथापि विशेषः, प्रतियोगिनस्तदवच्छेदकस्य वा पृथग्भावावश्यकन्वेऽद्वतासाम्राज्यात् । 'याह्यार्थता' इत्यत्र तल: 'तत्स्वभावत्वम्' इत्यादाविव प्रकृत्यर्थमात्रे निष्टलक्षणायामपि तस्याः प्रयोगविशेषनियन्त्रितस्वादत्रासंभवरप्रसरत्वेऽपि 'सत्पदप्ररूपणता' इत्यादाविवायत्वाद् न दोपः । वस्तुतो यथाश्रुताथेऽपि नानुफ्पचिः, बाह्यत्यसमानाधिकरणार्थतापादनेऽर्थताया बाह्यत्वसामानाधिकरण्यमात्रस्य फलत आपादनादिति ध्येयम् ॥ ३३ ॥
[क्लिष्टता हेतु के अपगम से शुद्धि का आविर्भाव ] मोक्ष में यह मानना होगा कि जैसे उक्त रीति से संसारीचित्त में चित्त से अतिरिक्त क्लिष्टता के जनक वस्तु का मानना आवश्यक प्रतीत होता है उसी प्रकार मोक्ष में क्लिष्टता के जनक का चित्त से पृथक भाव मानना भी आवश्यक होगा जिस से शुद्धस्वरूप के आविर्भाव रूप चित्तशुद्धि सम्भव हो । यह उसी प्रकार मानना होगा जैसे पट से नीलो आदि लक्ष्य के सम्बन्ध की निवृत्ति होने पर पट के पूर्ववत्ति शुद्धस्वरूप का आविर्भाव होता है और इस प्रकार जब संसारदशा में चित्त में क्लिष्टता के अतिरिक्त कारण का सम्बन्ध और मोक्ष दशा में चित्त से उसकी निवृत्ति मानना आवश्यक है तो बाह्यार्थ की सिद्धि जो विज्ञानवावी को अनिष्ट है उसकी प्रसक्ति अनिवार्य होगी । विज्ञानवादी को ओर से अविलण्टता का पलेशराहित्य अर्थ त्याग कर क्लिष्टभिन्नता अर्थ स्वीकार करना भी निरर्थक ही है क्योंकि अविलष्टता चाहे क्लेशराहित्यरूप हो चाहे क्लिष्टभिन्नतारूप हो-दोनों ही स्थितियों में कोई अन्तर नहीं होता। क्योंकि यदि प्रक्लिष्टता क्लेशराहित्यरूप