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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
किम् ? इत्याह
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हि संसारो रागादिक्लेशवासितम् । तदेव विनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते ॥ ३० ॥" रागादिक्लेशवासितं चित्तमेव हि संसारः, तैर्विनिर्मुक्तं च तदेव - चित्तमेव 'भवान्तः' इति कथ्यते - 'मोक्ष' इत्युपदिश्यत इति ॥ ३० ॥
| मन ही संसार है-मन ही मोक्ष हैं ]
बौद्ध श्रागम में ऐसा कहा जाता है कि रागादि क्लेशों से वासित चित्त ही संसार है और उत्क्लेशों से नितान्तनिर्मुक्त चित्त हो भवान्त यानी संसार का उपरम श्रर्थात् मोक्ष है । मोक्ष के विषय में बौद्धगम का उक्त कथन किस प्रकार वृथा = असङ्गत होता है इसका प्रतिपादन ३१ व कारिका में किया गया है
कथमेतद् वृथा ? इत्याह
मूलं - रागादिक्लेशवर्गो यन्त्र विज्ञानात्पृथग्मतः । एकान्तकस्वभावे च तस्मिल्किं केन वासितम् ? ||३१||
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यदु = यस्मात् रागादिक्लेशवर्गो विज्ञानात् पृथग भिन्नः न मतः, द्वैतापतेः । एकान्तकस्वभावे च तस्मिन् विज्ञाने, किं केन चासितम् ? वासकाभावात् ॥३१॥
विज्ञानवाद में रागादि क्लेशों का समूह विज्ञान से भिन्न नहीं माना गया है क्योंकि विज्ञान से भिन्न किसी भी वस्तु का अभ्युपगम करने पर द्वैत की यानी ज्ञानभिन्न अर्थ की सत्ता की आपत्ति होगी । यदि सब कुछ एकान्ततः एक विज्ञानस्वभाव ही है तो फिर वासक के अभाव में क्या एवं किस से वासित होगा ? ॥३१ ।।
३२ वीं कारिका में विज्ञानवाद की ओर से चित्त के वासक को बता कर उसका निराकरण किया गया है
पर आह
मूलं – क्लिष्टं विज्ञानमेवासी, क्लिष्टता तत्र यहशात् ।
नील्यादिवदसौ वस्तु तद्वदेव प्रसज्यते ॥३२॥
असी = रागादिक्लेश वर्गः क्लिष्यं विज्ञानमेव, न तु ततो भिन्नः । एवं चाऽक्लिष्टत्वं क्लिष्टभिन्नत्वं, न तु पृथग्भूतक्लेशादिराहित्यमिति न दोषः, अक्लिष्टस्य प्राप्यस्य सत्वाच्च नापवर्गप्रवृत्यनुपपत्तिरित्याशयः । अत्राह तत्र संसारिचित्त यद्वशात् क्लिष्टता नोल्यादिवत् - नीलीव्याद्युपरागात् पटादिविलष्टतावत् असौ - चित्त क्लिष्टतापादकः, तद्वदेव - ज्ञानवदेव वस्तु प्रसज्यते - पृथगू वस्त्वापद्यते, क्लिष्टताया उभयजनितत्वादिति भावः ||३२|| तथा,
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