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स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
त्वात्, – “दघ्न 'उत्पाद' आद्यक्षणसंबन्धरूपो भाव इति कथं स एव दुग्धनाशः १" इति केषां - चिदविचारिताभिधानम्, स्त्रयमेव प्रागभावनाशस्य प्रतियोगिरूपस्याभ्युपगमात् । यदपि केचिदभिमन्यन्ते 'दुग्ध-दध्नोगरसान्त्रयस्तैलादिव्यावृत्तो न द्रव्याऽविच्छेदरूपः किन्तु जात्यविच्छेदरूपः' इति तदपि प्रत्यभिज्ञाप्रतिहतम्, गोरसानन्वये निराश्रयस्य दध्न एवानुत्पत्तेश्च । दुग्धोपादानान्येव दध्न आश्रयः' इत्युक्त्वा च नामान्तरेण गोरसान्वय एवाभिहितो भवति, त्यक्तोपात्तोभयरूपस्यो भयोपादानस्य कथश्चिदुमयापृथग्भूतत्वादिति दिग् ॥ ३५ ॥
[ क्षीर-गोरस दृष्टान्त से सान्वय परिणाम की सिद्धि ]
उत्पद्यमान वही ही दुग्धनाश है और वह गोरस की स्थिति से युक्त है। अर्थात् जो गोरस रावस्था में था वह बधि अवस्था में भी अनुवर्त्तमान रहता है। किन्तु तैलादि गोरस से प्रनुविद्ध नहीं होता क्योंकि तैलादि का स्वरूप गोरस अत्यन्त भिन्न है । इस प्रकार दुग्धात्मक गोरस के 'दध्यात्मक परिणाम से यह स्पष्ट है परिणाम अन्वय का साधक होता है । क्योंकि उत्पाद यह विनाश और स्थिति से व्याप्य होता है अर्थात् जब कोई वस्तु उत्पन्न होती है तब वह किसी रूप से विनष्ट होती है और किसी रूप से अवस्थित भी रहती है। इसमें लोगों का कहना है कि 'वधि का उत्पाद आद्यक्षण सम्बन्धरूप है श्रत एव भावात्मक है और दुग्धनाश कालसम्बन्ध की निवृत्ति रूप होने से अभावात्मक है अतः उत्पद्यमान दधि को दुग्धनाशात्मक कहना असंगत है व्याख्याकार के कथनानुसार यह कथन अत्यन्त अविचारपूर्ण है क्योंकि जिन का ( नैयायिक का ) यह कथन है वे स्वयं प्रागभावनाश को प्रतियोगिस्वरूप मानते ही हैं, जैसे घटपटादि के प्रागभाव का नाश घटपटाविरूप होता है । कुछ लोगों का इस संदर्भ में यह कहना है कि- 'दुग्ध और दधि में गोरस का जो अन्वय है और जो तलादि में नहीं होता वह अन्वय गोरस नाम के किसी द्रव्य का अविच्छेदरूप नहीं है किन्तु गोरसत्य नामक जाति के श्रविच्छेदरूप है । किन्तु यह कथन भी 'दुग्ध हो अब ध हो गया' इस प्रकार की लोकसिद्ध प्रत्यभिज्ञा से निरस्त हो जाता है। दूसरी बात यह है कि वि दुग्धकाल में विद्यमान गोरस द्रव्य का वधिकाल में ग्रन्वय नहीं माना जायगा तो श्राश्रय का अभाव होने से दधि की उत्पत्ति ही नहीं हो सकेगी। यदि यह कहा जाय कि दुग्ध के उपादान कारण ही दधि के आश्रय है तो इस कथन से शब्दान्तर से दुग्ध के श्राश्रयभूत गोरस द्रव्य का हो दधि काल में अन्य सूचित होता है क्योंकि उपादान वही होता है जो एकरूप का त्याग और अन्य रूप का उपादान करता है । अत एव उपादान द्रव्य अपने पूर्वोतर रूपों से कथञ्चित् अभिन्न होता है ।। ३५ ॥ ३६ वीं कारिका में पूर्व कारिका में सूचित विषय का ही समर्थन किया गया हैएतदेव समर्थयन्नाह—
मूलम् -- नासत्सज्ञायते जातु सवाऽसत्सर्वथैव हि ।
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शक्त्यभावादतिव्याप्तेः सत्स्वभावत्वहानितः ॥ ३६ ॥
नासत् = एकान्ततुच्छम्, सज्जायते अतुच्छं जायते जामु कदाचित् शक्त्यभावा
दतिव्याप्तेः तुच्छस्य प्रतिनियताऽतुच्छ जननशक्त्यभावेन तदभावाऽविशेषात् तद्वदन्यभवना
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