________________
१८२
[ शास्त्रवा०ि स्त०६ श्लो०३७
ग्रहविरोधिदोषवत्वसम्बन्धावनिप्रतियोगिताक अमाव कारण है । यह सम्बन्ध प्रत्यक्षयोग्य अवयवगतनीलादि के सम्बन्धरूप में प्रसिद्ध है और अतीन्द्रियअवयवगतनीलादि का यह व्यधिकरण सम्बन्ध है। अतः इस सम्बन्ध से प्रतीन्द्रिय अवयवगत नीलादि का चतुरणुकादि अवयवी में अभाव होने से उसमें चित्ररूप के प्रत्यक्ष में बाधा नहीं हो सकती।
परन्तु यह उपाय गौरवग्रस्त होने के कारण मान्य नहीं हो सकता। अतः अवयवी में व्याप्यवृत्ति चित्ररूप के अस्तित्वपक्ष में शुक्लावयवाच्छेदेन चित्रोपलम्भ की आपत्ति यथापूर्व बनी रहती है ।
____ यदि इस आपत्ति के परिहार के लिये अवयवी में समवायसम्बन्ध से नीलपीतादि नानारूपों के प्रत्यक्ष को चित्रत्वग्रह का हेत माना आगया तो शक्लावयवावच्छेदेन चित्रप्रत्यक्ष की आपत्ति का पहिार हो जाने पर भी प्रवयवी में नीलरूपादि के अभ्रान्त प्रत्यक्ष की सिद्धि भी हो जायगो क्योंकि उसके भ्रमरूप होने में कोई युक्ति नहीं है।
स्यादेतत् , अन्याप्यवृत्तिनीलादिकल्पे तादृग्नीलादिप्रत्यक्षे द्रव्यतत्समवेतप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रति, अच्याप्यवृत्तिद्रव्यसमवेतप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रति या चक्षःसंयोगावच्छेदकावच्छिनसमरायसंबन्धावच्छिन्नाधारतासंनिको निरूपकतया विषयनिष्ठो हेतुः संयोगादिप्रत्यक्षस्थले क्लप्स एव | न च नीलकपालिकाबच्छेदेन चनमानस्य सरसमानील-पीतोभयकपालावच्छिन्नत्यनियमात् तदवच्छेदेन संनिक पीतादिग्रहापत्तिः, संयोगव्यक्तिय देशव्यापिनी तत्र परम्परया तद्देश एवाबच्छेदको न तु संपूर्णोऽवयव इत्यभ्युपगमाद् न दोषः। नीलविशिष्टपीतादिना नीलपीतोभयादिना बावान्तरचित्रीगंभवान् नाबान्तरचित्रसिद्धिः, चित्रत्वेन सममवान्तरचित्रवनामानाधिकरण्यप्रत्ययस्यापि नील-पीनविशिष्टचित्रत्वसामानाधिकरण्यायगाहित्वात , नीलाविशेषितनीलादिभेदाश्रयरूपसमुदायेनानुगतचित्रप्रतीतिसंभशच्चित्रत्वसामान्यमप्यसिद्धमेवेति ।
__ मेवम् , अनुभवसिद्धस्य चित्रत्वरयोक्तरीत्यापलापे नीलादिप्रतीतेरपि भेदविशेषावगाहित्वन नीलत्वादेरप्यपलापप्रसङ्गात् ।
[ अध्याप्यवृत्ति नीलादि अनेकरूप पक्ष में दोष निवारण का प्रयास ]
शंकाः-नीलादिरूप के अन्याप्यवसित्वपक्ष में इस प्रकार के कार्यकारणभाव को अपनाया जा सकता है कि विषयतासम्बन्ध से द्रव्य के और द्रव्यसमवेत के प्रत्यक्ष के प्रति, अथवा द्रव्य में अव्याप्यवृत्तिसमवेत के प्रत्यक्ष के प्रति, चक्षसंयोग के प्रवच्छेदक देश से अवच्छिन्न समवायसम्बन्धावच्छिन्न आधारता स्वरुप संनिझर्ष, नीरूपकता सम्बन्ध से हेतु है। यह कार्यकारणभाव नया नहीं है किन्तु घट में नीलादिमाग से अवच्छिन्न संयोग आदि के प्रत्यक्ष के प्रति प्रथमतः सिद्ध है अतः नीलादि को प्राव्याप्यवृत्ति स्वीकार करने पर किसी नवीन कार्यकारणमाव की कल्पना के गौरव को आपत्ति नहीं हो सकती तथा इस कार्यकारणभाव से नीलपीतादि अध्यायत्ति अनेक रूप के आश्रयभूत घट में नीलदेशावच्छेदेन चक्षुसंयोग होने पर नीलेतररूप के प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि उक्त