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स्या० का टीका एवं हिन्दी विषेचन ]
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[ उदयनाचार्य का चित्ररूप प्रत्यक्षोपपत्ति के लिये प्रयास ] यदि इसके उत्तर में यह कहा जाय कि
"चित्रत्वेन रूप के प्रत्यक्ष में अवयवगत नीलेतररूप-पीतेतररूप आदि का अवययी में स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से प्रत्यक्ष कारण है, इसीलिये उदयन आचार्य ने यह कहा है-'यणुक के चित्ररूप का चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं होता क्योंकि ज्यणुक के अवयव द्वयणुक गत रूप अतोन्द्रिय होने से उसका स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से ज्यणुक में ग्रहण नहीं होता।' यदि इस कार्यकारणभाव के विरुद्ध यह शंका को जाय कि - 'अवयवगत नीलपीताविरूप का नोलत्व-पोतत्व आदि रूप से अवयवी में ग्रहण होने पर भो अवयवोगतरूप का चित्रवेन प्रत्यक्ष होता है अतः नीलेतररूपत्वादिना नोलेतररूपाविज्ञान को चित्रत्व प्रत्यक्ष में कारण मानने पर व्यतिरेक व्यभिचार होगा'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि नीलस्व-पोतस्वादिरूप से अवयवगतनीलपीतादि के ज्ञान से उत्पन्न होनेवाले अधयविगतचित्ररूपप्रत्यक्ष में और नीलेतररूपत्वादि रूप से अवयवगतनीलेतर रूपादि के ग्रहण से उत्पन्न होनेवाले अवयवीगत चित्ररूप के प्रत्यक्ष में, जातिभेद मानकर दोनों प्रकार के ग्रहों को विजातीय चित्र प्रत्यक्ष में कारण माना जा सकता है । अथवा नीलेतररूपस्वादिव्याप्यत्वरूप से नीलेतररूपत्व और पीतत्वादि का अनुगम कर के उक्त दोनों ग्रहों में प्रवयविचित्रप्रत्यक्ष के प्रति एक कारणता को वास्तवरूप में मानने में कोई क्षति नहीं है।"
किन्तु इस कार्यकारणभाव के बल पर शुक्लावयवावच्छेवेन अघयवो में चित्रोपलम्भ की आपत्ति का परिहार नहीं किया जा सकता। तदुपरांत, उपरोक्त कार्यकारण भाव मानने पर ज्यणक के चित्ररूप का ग्रह नहीं होता है, अतः चतरणक में इसके अवयव ज्यणकगत रूप का नीलेतरस्वध्याप्यरूप से अथवा चित्रत्वरूप से स्वाधयसमवेतत्व सम्बन्ध से चित्ररूप का ग्रहण न हो सकने के कारण चतुरणुक के चित्ररूप का प्रत्यक्ष न हो सकेगा।
[ व्यणुक-चतुरतुक के चित्ररूप प्रत्यक्ष की उपपत्ति का प्रयास ] यदि इसके उत्तर में यह कहा जाय कि अवयविगत चित्र प्रत्यक्ष में नीलेतररूप तथा पीतेतर रूपादियाले अश्ययावच्छेवेन इन्द्रियसंनिकर्ष कारण है, तथा अवयवगत नीलादि का परम्परा सम्बन्ध से अवयवो में नोलत्वादि का ग्रह कारण नहीं है कि तु उस ग्रह के विरोधी दोष का प्रभाव कारण है। अतः ग्यणक और चतरणक आदि के चित्रपका प्रत्यक्ष होने में कोई बाधा नहीं हो सकती, क्योंकि यणुक के अवयच द्वयणुकों में विद्यमान नीलादिरूप अतीन्द्रिय होता है । अत एव उसमं नोलत्यादि का ज्ञान प्रसक्त नहीं है अतः उसके विरोधी दोष को कल्पना न होने से उक्त दोष का अभावरूप कारण सुलभ है । यदि आचार्य मत के अनुसार श्यणुक के चित्ररूप का अग्रहण और चतुरणुक के चित्र का ग्रहण, दोनों का उपपावन करना हो तो चित्ररूप के प्रत्यक्ष में नीलेतररूपादिमत् एव पोतेतररूपाविमत् महदवयवायच्छेदेन इन्द्रिय संनिका और उक्तदोषाभाष को कारण मान लेना उचित है । उक्त दोषाभाष को कारण मान लेने से उक्त दोनों बात को उपपत्ति हो सकती है। इस पर यदि यहांका की जाय फि -'अतीन्द्रिय अवयव के नीलादि में नीलत्वादि का ग्रह अप्रसिद्ध होने के कारण तद्विरोधो दोष भी अप्रसिद्ध होने से उक्तदोषाभाव अप्रसिद्ध है, अतः उसे कारण मानना युक्तिसंगत नहीं हो सकता' तो इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि अवयवगतनीलादि का स्वमिक-नीलस्वादि.