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स्याक० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
घर में नीलभागावच्छेदेन चक्षुसंयोग होने पर उक्त आधारतारूप संनिकर्ष निरूपकता सम्बन्ध से नीलेतररूप में नहीं रहता, क्योंकि नीलेतररूप की समवायसम्बन्धावच्छिन्न अाधारता चक्षुसंयोग के प्रवच्छेदकीभूत नोल देश से अवच्छिन्न नहीं है। ऐसा मानने पर यदि यह आपत्ति दी जाय कि-विजातोय नीलकपालिका के साथ चक्षुसंयोग होने पर परम्परा से नीलकपालिकावच्छेदेन घट के साथ भी चक्षुसंयोग होता है और वह संयोग नियम से नीलकपालिका में समवेत नीलपीतादिमाकपाल से भी अवच्छिन्न होता है । अत: नीलकपालावच्छेदेन चक्षुसंयोग के प्रवच्छेदकीभूत नीलपीतादिमत् कपाल देश से अवच्छिन्न समवायसम्बन्धावच्छिन्नाधारता रूप संनिकर्ष निरूपकत्वसम्बन्ध से घटगतपीतरूप में है क्योंकि उस प्रकार के कपाल से उत्पन्न घट में पीतरूप को प्राधारता नीलपीतकपालावच्छिन्न होती है । अतः नीलकपालिकावच्छेदेन उक्त पीतरूप के प्रत्यक्ष को आपत्ति होगी'-किन्तु यह आपत्ति उचित नहीं है क्योंकि 'जो संयोग व्यक्ति जिस देश में व्यापक होती है तन्मूलकसंयोग में परम्परासम्बन्ध से वह देश हो अवच्छेदक होता है किन्तु वह सम्पूर्ण अवयव जो उस देश से घटित है-अवच्छेदक नहीं होता।' ऐसा मानने पर उक्त दोष नहीं हो सकता क्योंकि नीलकपालिका के साथ चक्षुसंयोग होने पर नीलकपालिका में समवेत नीलपोतकपाल के साथ भी चक्षुसंयोग होता है और उस संयोग से घर के साथ चक्षसंयोग होता है। यही संयोग घट में पीतरूप के प्रत्यक्ष के प्रति प्रयोजक बन सकता है, किन्तु यह संयोग नीलकपालिका के साथ जो प्रथम चक्षुसंयोग होता है तन्मूलक होने से उक्त नियमान सार उमका अवनोदक नीलकमल न होकर नीलकपालिका ही होगी। क्योंकि मूलभूत चक्षुसंयोग नालापालिका में ही व्यापक होता है । प्रतः घट के साथ जो चक्षु का संयोग होता है उस का अवच्छेदक नीलकपालिका ही होगी। तदवच्छेदेन घट में पोतरूप को आधररता न होने से चासंयोगावच्छेदकावच्छिन्न समवायसम्बन्धावच्छिन्नाधारता रूप संनिकर्ष निरूपकत्व सम्बन्ध से घटगत पोतरूप में नहीं रहता। तदुपरांत नीलपीतउभयकपाल से उत्पन्न घट में जो अवान्तर चित्ररूप की उत्पत्ति का उल्लेख किया गया है वह भी ठीक नहीं है क्योंकि अवान्तर चित्ररूप की सिद्धि में कोई युक्ति नहीं है। नीलपीत उभय कपाल से उत्पन्न घर म बुद्धि होती है उसे स्बसमवायिसमवेतसमवायिसमवेतत्वसम्बन्ध से नीलविशिष्टपीतविषयक मान लेने पर उपपत्ति हो सकती है। जैसे स्वपद का अर्थ है नीलरूप, उसका समवायो नीलफपाल, उस में समवेत है घट, उसका समवायी है पोतकाल, तत्समवेतत्व है पीतरूप में। अतः यह कहने में कोई बाधा नहीं है कि उक्तरूप में चित्ररूप की प्रतीति उक्त सम्बन्ध से नीलविशिष्टपीत को विषय करती है। अथवा नोलादि के प्रव्याप्यत्तित्वपक्ष में अव्याप्यवत्ति नीलपीतादि की उत्पत्ति होने से उनका परस्पर में सामानाधिकरण्य सम्बन्ध होता है अतः नीलपोतादिकपालोत्पन्नघट में होनेवाली चित्रप्रतीति सामानाधिकरण्य सम्बन्ध से नीलविशिष्टपीत को विषय करती है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि उक्त प्रतीति स्वसमाथिसमवेतत्व सम्बन्ध से नीलपीत उभय रूप को विषय करती है। अथवा नीलादि के अव्याप्यवृत्तित्वपक्ष में समवाय सम्बन्ध से नोलपोतोभय को विषय करती है। अर्थात् उक्त घट में होनेवाली 'अयं चित्रः' इस बुद्धि का विवरण 'अयं नीलविशिष्टपीतवान्' अथवा 'अयं नोलबान पीतवान' इस रूप में हो सकता है। सामान्यचित्रत्य में जो अवान्तरचित्रत्व के सामा. नाधिकरण्य को बुद्धि होती है उसके अनुरोध से मी अनान्तरचित्रत्व को फल्पना नहीं हो सकती, क्योंकि वह भी परम्परा सम्बन्ध से नीलपीतविशिष्टत्वरूप चित्रत्य के साप्तानाधिकरय को विषय कर उपपन्न की जा सकती है । सत्य बात तो यह है कि सामान्य चित्रत्व स्वयं हो असिद्ध है, क्योंकि