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[ शास्त्रवार्ता०स्त०६इलो० ३७
जो 'इदं चित्रम्' 'इदं चित्रम्' इस प्रकार अनुगत प्रतीति होती है वह बुद्धि प्रतियोगिता सम्बन्ध से भेदांश में नीलादि अप्रकारक नीलादिभेदवत रूप समुदाय को विषय करती है। जैसे-नीलपीत-पीतरक्त प्रादि कपालों से उत्पन्न घटों में जो 'इदं चित्रम्' 'इदं चित्रम्' इस प्रकार की बुद्धि होती है उस का अर्थ है यह स्वाश्रयत्व और स्वभिन्नरूपाश्रयत्व उभयसम्बन्ध से रूपवान है।
उत्तर:-किन्तु विचार करने पर नालादिरूप के प्रयाप्यवतित्ववादों का उक्त कथन समीचीन नहीं प्रतीत होता क्योंकि चित्रत्व अनुभवसिद्ध है अतः उक्त रीति से उसका अपलाप करने पर नोलादि प्रतीति को भी भेद विशेष का ग्राहक मान लेने से नीलस्वादि का भी अपलाप हो जायगा । कहने का तात्पर्य यह है कि नीलत्वादि का अपलाप करने के लिये भी कह सकते हैं कि-'अयं नील' 'अयं पोतः' इत्यादि प्रतीति नोलत्व-पीतत्वादि रूप किसी भावात्मक धर्म को विषय न करती हुयी अनीलपीतादि के भेद को ही विषय करती है, अर्थात् 'अयं नीलः' का अर्थ होता है 'अयं अनीलभिन्नः' । अथवा वह प्रतीति जितनी नीलव्यक्ति है तत्तवव्यक्तिमेदकटवदभेद को स्वप्रतियोगितावच्छेदकाभाववत्त्व सम्बन्ध से भेदत्वेन विषय करती है। अर्थात् 'अयं नील:' इस प्रतीति का अर्थ है अयं स्वप्रतियोगितावच्छेदकतत्तव्यक्तिमेदकूटाभाववत्त्वसम्बन्धेन भेदवान् । इस प्रतीति में तत्तव्यक्तिभेदकूट का संसर्ग कुक्षि में प्रवेश होने के कारण इस प्रतीति को उपपत्ति में तत्तद्व्यक्तिग्रह को अपेक्षा नहीं होती।
अस्तु तर्हि तत्र तत्रावयविनि नीलत्वादितत्तचित्रत्वाश्रयमेकमेव व्याप्यवृत्ति रूपादिकं लाघवात् [नीलत्यादिकमेव ? ], तत्राऽच्याप्यवृत्तिगुणविशेषाणामिव जातिविशेषाणामप्यव्यायवृत्तित्वेऽविरोधात्, परम्परव्यभिचारिजात्योः सामानाधिकरण्यस्य बाधकविरहात्त प्रमाणसिद्धस्यानभ्युपगममात्रेण निराकरणायोगात् । अत एव ककारादिपु सर्वेषु ताराद्याकारानुगतमतिरुपपद्यतेः एकस्यैव तारत्वादेः ककारादिवृत्तित्यात , उपपद्यते च मात-पापाण-सौवर्ण घटादारनुगतमतिरिति स्वतन्त्र एव पन्था इति चेत् ?
च्याप्यवृत्ति एक रूप वादी स्वतन्त्र मत की आशंका ] स्वतंत्रवादी:- नीलपीतादि के अध्याप्यत्तित्ववादी के विरुद्ध यह मानना अधिक युक्तिसंगत है कि नोलपीतादि विजातीयरूपावि युक्त अवयवों से उत्पन्न अवयवी द्रव्य में व्याप्यवृत्ति रूप उत्पन्न
नीलल्पपीलत्वाशिसभी जातियों का आश्रय होता है और वही 'चित्र' पद से निदिष्ट ता है इस प्रकार नीलत्व-पोतत्वादि जाति हो एकरूपवत्तितया चित्रत्वरूप होती है और एक एक रूपमात्रवृत्तितया नीलरवादिरूप होती है-इस कल्पना में लाधव है तथा कतिपय गुणों के अव्याप्यधत्तित्व के समान इन कतिपय जातियों को अध्याप्ययत्ति मानने में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि गोत्व-अश्वत्वादि परस्पर व्यभिचारी जाति में सामानाधिकरण्य न होने पर भी नौलत्व-पीतत्वादि परस्पर व्यभिचारी जाति में सामान धिकारण्य मानने में कोई बाधा नहीं है। अत: बाधविरहरूप सतर्कप्रमाण से उन जातियों के सामानाधिकरण्य की सिद्धि होने पर उसका केवल यह कह कर निराकरण नहीं हो सकता कि 'परस्परव्यभिचारी जाति का सामानाधिकरण्य कहीं अन्यत्र स्वीकृत नहीं है ।' उन जातियों का सामानाधिकरण्य स्वीकृत है इसीलिये तो तार गकार में तारत्व कत्व का ध्यभिचारी और मन्द ककार में कत्व तारत्व का व्यभिचारी होने पर भी करव और तारत्व इन दोनों का