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स्या० क. टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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तार ककार में सामानाधिकरण्य माना जाता है और उसी से ककार-गकारादि समो तार वर्गों में ताराकार अनुगतबुद्धि को उपपत्ति हो सकती है। क्योंकि, एक ही तारत्व ककार-कार आदि सब में विद्यमान होता है । परस्पर व्यभिचारी जातियों का सामानाधिकरण्य मान्य है इसीलिये मृत्तिका, पाषाण और सुवर्ण के बने हुये घट में 'घटः' ऐसी अनुगत प्रतीति संगत होती है। क्योंकि घटत्व मत्तिका में या पाषाणघट में सुवर्णत्व का व्यभिचारी है और सुवर्णत्व कुण्डल-करकादि में घटत्व का ध्यभिचारी है, इसी प्रकार मृत्तिकात्व और पाषाणत्व घटेसरमृत्तिका और पाषाण में घटत्व का व्यभिचारी है, एवं घटत्य सुवर्ण के घट में मृत्तिकात्व-पाषाणत्व का व्यभिचारी है, फिर भी मृत्तिका और पाषाण के बने घरों में मृत्तिकात्व और पाषाणत्व के साय घटत्व का सामानाधिकरण्य होता है। इस प्रकार चित्ररूप के सम्बन्ध में यह एक स्वतन्त्र मार्ग भी प्रतिष्ठित हो सकता है ।
सत्यम् , एवमप्येकानेकवस्तुरूपाऽव्याहतावपि, सत्यामपि चित्रत्वग्राहकसामग्रयां नीलभागावच्छेदेन 'हर व चित्रम्' इति प्रतीतेस्नत्तदवच्छेदेन पर्याप्ताऽपर्याप्ततया स्वरूपतोऽपि तस्येकानेकात्मकस्य युक्तत्वात् । एवं हि चित्रप्रतिभासे नीलपीतादिमत्त्वग्रहहेतुत्वमपि न कल्पनीयम्, पनसमात्रदेशावच्छेदेन 'वनम्' इति बुद्धधभावस्येव नीलभागमात्रावच्छेदेन चित्रप्रतिभासाभावस्य विषयाभावादेवोपपत्तेः, तद्देशेनाऽचित्रादिधियश्च नयाधीनत्वात् ।
[स्वतन्त्र मत की समालोचना, चित्ररूप की स्वरूपतः एकानेकरूपता ]
इस स्वतन्त्र नवीन मत के सम्बन्ध में व्याख्याकार की यह विशेषोक्ति है कि-नीलपीतादिकपालों से उत्पन्न घट में, उक्तमत में उस घट के रूप में स्वरूपतः ऐक्य और नोलत्व-पीलत्वावि एकएक रूप से अनेकत्व अव्याहत होने पर भी ऐक्य-अनक्य दोनों रूप स्वरूपतः नहीं लब्ध होता है जब कि वस्तुस्थिति यह है कि दोनों रूप वहां स्वरूपतः है, क्योंकि पद्यपि केवल नोलभागावच्छेदेन चक्षुसंयोग होने पर मी चित्रत्वग्राहकसामग्री तो वहां निर्बाध है। जैसे-चित्रत्व ग्राहक सामग्री है चक्षुसंयुक्तसमवेतसमवायरूप संनिकर्ष और वह संनिकर्ष केवल नीलभागावच्छेदेन घट के साथ चक्षुसंयोग होने पर भी निधि है क्योंकि चक्षःसंयक्त घट में जो रूप समवेत है उस में नीलत्व और नीलत्वपीतस्वादि की समष्टिरूप चित्रत्व दोनों ही समवेत हैं । -तथापि नोलभागावच्छेदेन चित्रत्वेन रूप की प्रतीति न होकर 'इह न चित्रम्' इस प्रकार की प्रतीति होतो है । इस से यह सिद्ध होता है कि घट का उक्त व्याप्यवृत्ति रूप भी चित्रत्व नीलत्वपीतत्वादि विभिन्नजाति को समष्टिरूप से एक देश में पर्याप्त नहीं होता। अतः वह स्वरूपतः एक है इसीलिये घट के सम्पूर्ण भागों में विद्यमान होने से एक देश में पर्याप्त नहीं होता। और वह अनेक भी है, क्योंकि केवल नीलभागावच्छेदेन चक्षुसंनिकर्ष होने पर 'इह नीलम्' इस प्रकार यह रूप नीलस्वादि एक एक रूप से घट के एक एक भाग मात्र में भी उपलब्ध होता है, इस उपलब्धि से एक एक भाव में नोलत्वादि एक एक रूप से उसकी पर्याप्तता सिद्ध होती है । इस प्रकार उक्त घट' का रूप नोलत्वादि एक एक रूप से स्वरूपतः भो अनेकात्मक है-इस प्रकार उसकी स्वरूपतः एकानेकोभयात्मकता निर्विवाद है।
उक्त घटगतरूप के उक्त रीति से स्वरूपतः एकानेकात्मक सिद्ध होने का एक सत् फल यह भी है कि चित्ररूप के प्रतिभास में नीलपीतादिरूपग्रह को कारण मानने को भी आवश्यकता नहीं रहती । क्योंकि जसे वन के विभिन्न जातीय वक्षों के समूहरूप होने से पनस एक विशेषज