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[ शास्त्रवा० स्त० ६ स्लो०३७
वृक्षावच्छेदेन चक्षुसंनिकर्ष होने पर तस्वच्थेवेन समष्टिरूप धन का अभाव होने से उसमें 'वनम्' इस बुद्धि का प्रभाव होता है, इसी प्रकार उक्त घट में नीलभागमात्रावच्छेदेन 'इह चित्रम्' इस प्रकार के चित्रप्रतिभास का अभाव भो तदवच्छेवेन चित्ररूप विषय के अभाव से ही उपपन्न हो जाता है। किन्तु नोलभागमात्रावच्छेदेन जो 'इन द चित्र अबला हो होला' इस माद जो अचित्रत्व-नीलत्वादि को बुद्धि होती है वह नय द्वारा सम्पन्न होती है अर्थात् नीलत्वादिरूप एक एक की अपेक्षा से उस भाग में रूप में प्रचित्रत्व विद्यमान होने के कारण एक एक भाग में प्रचित्रत्व की बद्धि होती है । और नीलत्वात्मक एक रूप से उस भाग में उस रूप की पर्याप्तता को अपेक्षा से 'इह नीलम्' यह बुद्धि होती है।
तदिदमाह सम्मतिटीकाकार:-"अत एवैकानेकरूपत्वाचित्ररूपस्यकावयवसहितेऽवयविन्युपलभ्यमाने शेषावयवाऽऽवरणे चित्रप्रतिभासाभाव उपपत्तिमान , सर्वथा त्वेकरूपत्वे तत्रापि चित्रप्रतिभासः स्यात् , अवयविच्याप्त्या तपस्य वृत्त । न चाऽवयवनानारूपोपलम्भसहकारीन्द्रियमवयविनि चित्रप्रतिभासं जनयति, इति तत्र सहकार्यभावाञ्चित्रप्रतिभासानुत्पत्तिरिति वाच्यम्, अवचिनोऽप्यनुपलब्धिप्रसङ्गात् । न हि चाक्षषप्रतिपत्त्याऽगृह्यमाणरूपस्यावयविनो वायोरिवअहणं दृष्टम्। न च चित्ररूपच्यतिरेकेणापरं तत्र रूपमात्रमस्ति यतस्तत्प्रतिपत्त्या पटाहणं भवेत्र" इत्यादि । तदेवं चित्ररूपयत् सिद्धं नित्यानित्यत्वादिरूपेणेकानेक वस्त्विति परिभाषनीयं सुधीभिः । विस्तरस्तु स्यावादरहस्ये ॥३७॥
[चित्ररूप मीमांसा का उपसंहार ] व्याख्याकार ने इस संदर्भ में सम्मतिटीकाकार के उक्त तथ्य के संधादी वचन को उद्धत किया है जिसका अर्थ इस प्रकार है-चित्र रूप के एकानेकरूप होने से एकावयवसहित अययवि की उपलब्धि के समय अन्य समस्त अवयवों के आवत रहने पर अवयवी में चित्रप्रतिभास का अभाव उपपन्न होता है । यदि चित्ररूप सर्वथा एक होता तो घट के एक भाग में भी चित्रत्वेन उस का प्रतिभास होता, क्योंकि समस्त घट में विद्यमान होने से सर्वथा एकरूप घटत्व जैसे प्रत्येक घटव्यक्ति में पर्याप्त होता है उसी प्रकार सम्पूर्ण अवयवी में व्याप्त चित्ररूप भी सर्वथा एकरूप होने पर अवयवी के प्रत्येक भाग में भी पर्याप्त होता।
यदि यह कहा जाय कि 'उक्त अवयवी में जो केवल नोलभागावच्छेदेन चक्षुसंनिकर्ष होने पर चित्ररूप का प्रतिभास नहीं होता वह इसलिये नहीं कि उसमें चित्ररूप नहीं है, अपितु इसलिये नहीं होता कि हतिय अवयवगत विजातीय रुपों के उपलम्भ से सरकत होकर ही अवयवी में चि
चित्रप्रत्यक्ष का जनक होता है। अतः नोलभागमात्रावच्छेदेन चक्षसंनिकर्ष होने पर अवयवगत घिजातीयरूपों के प्रत्यक्षरूप सहकारी के अभाव से चित्रप्रतिभास को अनुत्पत्ति होती है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर एकदेशमात्रावच्छेदेन चक्षुसंनिकर्ष होने पर अवयवी को भी उपलब्धि न हो सकेगी क्योंकि सहकारी के अभाव से उस में चित्ररूप की उपलब्धि हो नहीं सकती और अन्य कोई रूप उसमें रहता नहीं जिसके साथ उसको उपलब्धि हो । तथा यह बात स्वीकार्य नहीं हो सकती कि 'रूप का चाक्षुषप्रत्यक्ष न होने पर भी अवयवी का चाक्षष प्रत्यक्ष होगा'-क्योंकि, जसे रूप का प्रत्यक्ष न होने