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__ स्याक टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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[अनेकदर्शन साधारण एक नील की असिद्धि ] यदि यह कहा जाय कि-"नील अर्थ अपने एक दर्शन के निवृत्त हो जाने पर भी अन्यदर्शन में भासित होता है । अतः नीलादिपदाथ विभिन्न वर्शनों में साधारण होने से ग्राह्य होता है और एकार्थाकार विज्ञान अन्य प्रर्थों का ग्राहक न होने से असाधारण होता है और असाधारण होने से वह ग्राहक होता है । इस प्रकार साधारण्य और असाधारण्य प्रयुक्त ग्राह्यार्थ और ग्राहकज्ञान में भेद का अभ्युपगमे युक्तिसंगत है।"-ती यहीक नहीं है, क्योंकि नील को साधारणतया प्रतीति असिद्ध है। कारण, एक दर्शन के विषयभूत नील का अन्यदर्शन में भासित होना हो उसका साधारण्य है और इस साधारण्य का ग्रहण प्रत्यक्ष द्वारा नहीं हो सकता क्योंकि विभिन्न दर्शनों का ग्रहण किसी एक प्रत्यक्ष द्वारा सम्भव नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-"अनुमान से नीलादि की साधारणता सिद्ध हो सकती है क्योंकि एक सन्तान में नीलग्रहण के लिये होने वाली प्रवत्ति में नोलदर्शनपूर्वकत्व देथा जाता है अतः यह व्याप्तिग्रह हो सकता है कि नीलग्रहण में होने घाली प्रवृत्ति नौलदर्शनमूलक होती है-और इस व्याप्ति से अन्य सन्तान में होनेवाली नीलग्रहणार्थ प्रवृत्ति को देखकर उसमें भी नीलदर्शनपूर्वकत्व का अनुमान हो सकता है। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि एक हो नीलपदार्थ विभिन्नसन्तानों में होने वाले विभिन्न दर्शनों का विषय होता है"- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अन्य व्यक्ति की प्रवृत्ति से अन्यदृष्ट नील का अनुमान होने पर भी विभिन्नव्यक्तिओं से दृष्ट नोल में ऐक्य को सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि अनुमान के मूलभूत अन्वय (व्याप्ति) का निश्चय साध्य और हेतु में विशेषरूप से न होकर सामान्यरूप से ही होता है। इसलिये जैसे पाकशाला में जिस धूम से जिस वह्नि का सहचार दृष्ट होता है उस धूम से भिन्न धूम को देखकर पर्वत में उस वह्नि से भिन्न वह्नि का अनुमान होता है और उस भिन्न वह्नि में पूर्वदृष्ट वह्नि के सादृश्य का ज्ञान होता है, उसी प्रकार अपनी नीलग्रहणार्थ प्रवृत्ति में जिस नील के अपने दर्शन का नरन्तयं गृहीत है, अन्य व्यक्ति को नील ग्रहणार्थ प्रवृत्ति से अन्य नोल के दर्शन का नरन्तर्य हो अनुमित हो सकता है और अन्यदृष्ट नील में स्वष्ट नील के सादृश्य की बुद्धि हो सकती है। इस प्रकार स्वष्ट और परदृष्ट नोल में नील का भेद ही युक्तिसंगत है। किन्तु यवि स्व और पर के नीलविषयक प्रतिभास में भेद होने पर भी आपके द्वारा स्वदृष्ट और परदृष्ट में इसलिये अभेद माना जायगा कि ये दोनों सदृशव्यवहारादि कार्य के उत्पादक है, तो स्व प्रौर पर के सुखादि में भी अभेद की प्रसक्ति होगी क्योंकि स्व और पर के सुख से स्व और पर में समान रोमान्च के उद्गम आदि कार्य देखा जाता है ।
न च सन्तान भेदाद तद्भेदः, तत्रापि भेदकान्तरगवेषणायामनवस्थानात् । स्वरूयत एव ताझेदे च मुखादेरपि तत एव मेदसंभवात् । न च देशैकत्वात स्व-परदृष्टनीलादीनामेकत्वम् , देशस्थापि स्व-परदृष्टस्योक्तवदेकत्वायोगात् । तस्माद् ग्राहकाकारवत् प्रतिपुरुपमुद्भासमानं नीलादिकमपि भिन्नमेव, तच्चेककालोपलम्भाद् ग्राहकवत् स्वप्रकाशम् ।
[सन्तान भेद से सुखादि का भेद मानने में अनवस्था ] यदि स्व और पर के सुख में ज्ञानमेव से भेद न मानकर सन्तानभेद से भेद माना जायगा तो उन सन्तानों के भेद के लिए भी ज्ञानभेद से भेद न मानकर अन्य भेदक को कल्पना करनी होगी जिसका पर्यवसान अनवस्था में होगा। यदि सन्तानों में स्वरूपतः अर्थात् भेवकान्तरनिरपेक्ष मेव