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[ शास्त्रवार्ता ० स्त० ५ श्लो० १०
तद्दर्शनविरतावपि परदृशि प्रतिभातीति साधारणतया ग्राह्यम् विज्ञानं स्वसाधारणतया ग्राहकमिति भेदो युक्त इति चेत् ? न, नीलस्य साधारणतया प्रतीतेः । न हि नीलं परदृशि प्रतिभातीन्यत्र प्रत्यपरोऽति । अतत्साधारणता प्रतीयते, स्वसंताने नीलादानार्थप्रकृतेः नीलदर्शनमूलकत्वदर्शनेन परसंतानेऽपि प्रवृत्तिदर्शनात् तद्विपयदर्शनानुमानादिति चेत् न, परप्रवृत्त्यादिना परदृष्टनीलानुमानेऽपि स्व-परदृष्टयोर क्याऽसिद्धेः, सामान्येनान्वयपरिच्छेदात्, अपरधूमदर्शनादपरवलयनुमानात्, अपरवहीं पूर्वदृष्टवह्निसदृशताविकल्पयत् परदृष्टे स्वदृष्टसदृशता - मात्र विकल्पावतारात् । प्रतिभासभेदेऽपि स्व-परदृष्टयोः सदृशव्यवहारादिकार्यदर्शनाद भेदः स्यात्, तदा सदृशरोमाञ्चवादिकार्यदर्शनात् सुखादेरपि स्त्र- परसंतान वस्तत्त्वं भवेत् ।
[ अर्थ की अनुमानपूर्व सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती ]
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यदि यह कहा जाय कि - ' अनुमान के पूर्व अर्थ की सत्ता मानना आवश्यक है क्योंकि अर्थसत्ता अनु यानी पश्चात् अर्थ ज्ञान मानने पर ही उसमें अनुमान शब्द सार्थक हो सकता है। अतः अर्थ की पूर्व सत्ता माने विना अनुमानात्मक ज्ञान का सम्भव न हो सकने के कारण अनुमान के पूर्व अर्थ सत्ता का अभ्युपगम अनिवार्य है ।" तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि अनुमान से पूर्व अर्थसत्ता की सिद्धि उसके प्रत्यक्ष द्वारा नहीं हो सकती है किन्तु ऋतुमानात्मक लिङ्ग द्वारा आनुमानिक हो सिद्धि हो सकती है, किन्तु वह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि उसके लिये अनुमान में अर्थ को पूर्वसत्ता का याप्तिग्रह होना चाहिये जो अर्थसत्ता के प्रमाणान्तर द्वारा सिद्ध न होने से सम्भव नहीं है ।
[ कादाचित्क नीलाद्याकार से बाह्यार्थ की सिद्धि अशक्य ]
यदि यह कहा जाय कि 'ज्ञान में नीलाद्याकार कादाचित्क है - सादिक नहीं है अर्थात् कोई कोई ज्ञान ही नीलाद्याकार होता है सब ज्ञान नीलाद्याकार नहीं होता है, इस स्थिति को उपपत्ति ज्ञान के नीलाद्यर्थजन्य माने बिना नहीं हो सकती, अतः ज्ञान में कादाचित्क नीलाद्याकार की उपसि 'लिये नीलाद्यर्थ की कल्पना श्रावश्यक है" तो यह टीक नहीं है, क्योंकि जैसे स्वप्नाद्यवस्था में हस्ती अश्व रथ आदि पदार्थों के न होने पर भी वासना विशेष से नियत तत्तदर्थाकार ज्ञान का उदय होता है उसी प्रकार जाग्रत्काल में भी वासना विशेष से ही तत्तत्प्रतिनियत अर्थविषयक दर्शन को उत्पत्ति हो सकती है। अतः ज्ञान में नियतविषयकत्व के अनुरोध से ज्ञान के पूर्व अर्थ की सत्ता मानने में कोई युक्ति नहीं है। यदि यह कहा जाय कि "जैसे दर्शन के पूर्व अर्थ सत्ता में कोई प्रमाण नहीं है, उसी प्रकार दर्शन के पूर्व अर्थ की असत्ता में भी कोई प्रमाण नहीं है ग्रतः 'अर्थ ज्ञान के पूर्व असत् होता है' यह सिद्धान्त युक्तिशून्य है" तो यह ठीक नहीं, क्योंकि दर्शन के पूर्व अर्थ की असत्ता में स्वयं वर्शन ही प्रमाण है क्योंकि 'जो वस्तु जिस रूप से उपलब्ध होती है उस रूप से ही उसका अस्तित्व होता है यह सर्वमान्य है । जैसे नील नीलरूप से उपलब्ध होने के कारण नीलरूप से हो उसकी सत्ता होती है-पीतादिरूप से नहीं । अतः दर्शन भी वस्तु को वर्तमानत्वेनंव अर्थात् स्वसमानकालिरूप से ही ग्रहण करता है श्रत एव वह अर्थ के पूर्वकाल सम्बन्ध का व्यवच्छेद कर वर्तमानकाल अपने अस्तित्वकाल में ही अर्थ सत्ता का साक्षी होता है।