________________
स्याक० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
ज्ञान वर्तमानदर्शन द्वारा नहीं हो सकता । यदि वर्तमान दर्शन प्रविधमानपूर्वदृष्टता का प्रहण करेगा तो भ्रम हो जायगा और भ्रम से विषय की सिद्धि नहीं होती है यह स्पष्ट है । पूर्वदर्शन से भी पूर्वदृष्ट और दृश्यमान में एकत्व का ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि पूर्वदर्शन के साथ वर्तमान अर्थ के कालिक दर्शन की व्याप्ति अर्थात् 'वर्तमानकाल दर्शन विषयतासम्बन्ध से जिस अर्थ में है उसमें पूर्ववर्शन भी विषयतासम्बन्ध से है' इस व्याप्ति का ग्रहण नहीं हो सकता है। प्राशय यह है कि पूर्ववर्शन वर्तमानकाल में दृश्यभाव अर्थ का ग्राहक नहीं हो सकता क्योंकि वर्तमानकाल में दृश्यमान को सत्ता पूर्व में एवं पूर्वदर्शन की सत्ता वर्तमान में दृश्यमान नहीं है। अतः सिद्धान्त यह है कि दर्शन पूर्वदर्शनादि के सम्बन्ध से मुक्त हो सम्पूर्ण वस्तुओं को ग्रहण करता है। किसी अर्थ को पूर्वदृष्टता का उल्लेख दर्शन से नहीं अपितु स्मरण से होता है।
[प्रत्यभिज्ञा में बुद्धि-एकल की अनुपपत्ति ] ‘स एवायम्' यह प्रत्यभिज्ञात्मक बुद्धि भी एक नहीं है जो पूर्वष्ट और दृश्यमान के ऐक्य में प्रमाण हो सके क्योंकि यह बुद्धि 'स' 'इस अंश में स्मरणरूप है और 'अयम्' इस अंश में दर्शन रूप है। स्मरण परोक्षज्ञान है और दर्शन अपरोक्ष ज्ञान है। परोक्षत्व और अपरोक्षत्व इन दोनों में विरोध होने से 'सः' इत्याकारक और 'अयम्' इत्याकार ज्ञान में भेव अनिवार्य है । यदि यह कहा जाय कि-"उक्त प्रत्यभिज्ञात्मक बुद्धि का 'पश्यामि' इस रूप में प्रत्यक्षात्मना ज्ञान होता है अतः त्यभिज्ञा केवल प्रत्यक्षरूप ही है, किसी भी अंश में स्मतिरूप नहीं है । 'स:' इस अंश में संस्कारजन्य होने से उसे स्मरणरूप नहीं माना जा सकता क्योंकि संस्कारमात्रअन्यत्व में ही स्मृतित्व की व्याप्ति है। प्रत्यभिज्ञा संस्कार और इन्द्रिय उभय से जन्य होने के कारण संस्कारमात्रजन्य नहीं है । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि तत्ता को प्रत्यभिज्ञा तत्ता के संस्कार से नहीं उत्पन्न होतो किन्तु सत्ता के स्मरण से उत्पन्न होती है। अतः प्रत्यभिज्ञा में संस्कारजन्यत्व असिद्ध होने से उसे स्मरणात्मक नहीं माना जा सकता"-तो नयायिक प्रादि का यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि प्रत्यभिज्ञा की 'पश्यामि' इस प्रतीति से उसमें चाक्षषप्रत्यक्षरूपता का साधन सकता क्योंकि पश्यामि' यह प्रतीति चाक्षषत्व के साधन में इसलिये असमर्थ है कि निर्विकल्पक अतीन्द्रिय होने से 'पश्यामि' इस प्रकार चाक्षुषत्व रूप में उसका अनुभव नहीं होता । अतः यह मानना युक्तिसंगत है 'पश्यामि' यह प्रतोति अपने विषयभूतज्ञान में चाक्षुषत्व को विषय न कर वैशा विशेष को ही विषय करती है । अतः नयायिक का उक्त कथन अकिश्चित्कर है।
अथानुमानात् प्राग भायोऽर्थस्य सिध्यति, प्राक् सत्ता विना पश्चाद्दर्शनायोगादिति चेत् ? न, प्राक् सत्ताया असिद्धया तया सह पश्चाद्दर्शनस्य नियमाऽसिद्धेः । अथ ज्ञाने नीलाधाकारस्य कादाधिकस्यान्यथानुपद्यमानात तत्प्रसिद्धयेऽर्थः परिकल्प्यत इति चेत् ? न, स्वप्नाद्यवस्थायां वासनाविशेपसामर्थ्यवशार विद्यमानकरि-नुरग-रथाधाकारप्रतिपत्तिनियमवज्जााग्रद्दशायामपि तत एष दर्शनस्य प्रतिनियतविषयत्वोपपत्तेः तद् न प्रागर्थसत्यम् । प्रागसत्त्वे तु धर्मिस्वरूपे दर्शनमेव प्रमाणम् , यद् येनैव रूपेणोपलभ्यते तत् तेनैव रूपेणास्ति, यथा नील नीलरूपतयव, इत्थं च वर्तमानत्वेनानुभव एवं पूर्वकाले संबन्धित्वं व्यवच्छिनतीति । अथ नीलं