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[ शास्त्रवा० स्त० ५ लो० १०
[दर्शन के पूर्व अर्थसत्ता में दर्शन प्रामाण्य का निराकरण ] रूपादि में चक्षु आदि से प्रकाशता का आधान जो अन्य मतों में माना जाता है-उसके विरुद्ध बौद्ध का यह कहना है कि दर्शन के पूर्व अर्थसत्ता में कोई प्रमाण नहीं है। अत: उसमें घक्षु प्रादि से प्रकाशता के श्रापान का समर्थन नहीं हो सकता। यदि यह कहा जाय कि-"दर्शन के पूर्व अर्थसद्भाव में स्वयं दर्शन ही प्रमाण है क्योंकि यदि पूर्व में अविद्यमान का भी दर्शन माना जायमा तो एकाकार दर्शन के समय सर्वसम्पूर्ण विषयाकार दर्शन की आपत्ति होगी। अत: यह मानना ही उचित है कि जो वस्तु दर्शन के पूर्व विद्यमान होती है तथा जिसके दर्शन की सामग्री पूर्व में सन्निहित होती है उसी का दर्शन होता है।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वर्शन में विषयविशेष की व्यवस्था के लिये उसके पूर्व विषय का अस्तित्व मानना आवश्यक नहीं है क्योंकि उसकी उत्पत्ति यह मानने पर भी हो सकती है कि जो अर्थ जिस ज्ञान का समायुक होता है अर्थात् जो अर्थ जिस ज्ञान के साथ उत्पन्न होकर उसके साथ ही नष्ट हो जाता है वह अर्थ उस ज्ञान से गृहीत होता है । जब ज्ञान और उसका बाह्याकार दोनों समायुष्क होंगे तो उन में भेद मानना अयुक्त है।
अथ 'पूर्वदृष्टं पश्यामि' इति व्यवसायात प्रागर्थः सिध्यति, प्रागर्थसत्तां विना दृश्यमानस्य पूर्वदृष्ट एकत्वगतेरयोगादिति चेत् ? कन तयोरंशत्वं गम्यते ? इदानींतनदर्शनेन, पूर्वदर्शनेन वा ? नायः, इदानींतनदर्शनकाले पूर्वकालस्याऽस्तमयात् , तेनाविद्यमानपूर्वदृग्गभेपूर्वदृष्टताया अश्रणात, अन्यथा वितथत्वप्रसङ्गात् । अत एव न द्वितीयः, पूर्वदर्शनेन वर्तमानकालदर्शनव्याप्तेरनवसायात् । तस्मादपास्तपूर्वगादियोग सर्व वस्तु दृशा गृह्यते, पूर्वदृष्टता तु स्मृतिल्लिखतीति । न च स एवायम्' इति प्रतीतिरेका, 'सः' इत्यस्थ स्मृतिरूपत्वात् , 'अयम्' इत्यस्य च दृषस्वरूपस्यात्, परोक्षसा-ऽपरोक्षस्वाभ्यां तद्दात् । न च 'पश्यामीति प्रतीतेः प्रत्यक्षमेव प्रत्यभिज्ञानम् , न च संस्कारजस्यत्वेन स्मृतित्वापत्तिः, संस्कारमात्रज-यत्वस्यैव स्मृतित्वव्याप्यत्वाद, तत्तास्मृतेरेव वा तत्ताप्रत्यभिज्ञाहेत त्यात' इति नैयायिकादिमतमपि यक्तम् , तेषामपि 'पश्यामि' इत्याद्यनुगतमस्या चानुपत्याऽसिद्धनिर्विकल्पका साधारण्यात् , वैशद्यविशेषस्यैव 'पश्यामि' इति प्रतीतो विषयत्यादिति न किञ्चिदेतत् ।
[ दृश्यमान और पूर्वदृष्ट में एकत्व असिद्ध ] यदि यह कहा जाय कि-"मैं पूर्वदृष्टवस्तु को देखता हूं-इस प्रकार का अनुभव लोक सम्मत है अतः इस अनुभव के अनुरोध से वर्तमान दर्शन के पूर्व भी दृश्यमान अर्थ को सत्ता माननी होगी, क्योंकि पूर्व में सत्ता माने बिना उसकी पूर्वष्टता उपपन्न नहीं हो सकती । फलतः दृश्यमान और पूर्व दृष्ट में जो एकत्व की प्रतीति होती है उसको उपपत्ति पूर्व में प्रर्थसत्ता को माने विना नहीं हो सकती, अतः उक्तानुभव ही अर्थ की पूर्व सत्ता में प्रमाण है।"-इस पर बौद्ध का कहना है कि दृश्यमान और पूर्यदृष्ट अर्थों में एकत्व का ज्ञान असिद्ध है क्योंकि एकत्व का ज्ञान न तो वर्तमान दर्शन से हो सकता है-न तो पूर्व वर्शन से । वर्तमान दर्शन से इसलिये नहीं हो सकता कि वर्तमान दर्शनकाल में पूर्वदर्शन और उसका काल नष्ट हो चुका रहता है, अतः अविद्यमान पूर्वदर्शन से घटित पूर्वदृष्टता का