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स्या० ० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
जो प्राकार अविद्या से आरोपित होता है वह प्रश्न करने योग्य नहीं होता। विद्या की ही यह महिमा होतो है कि वह एक व्यवस्थितरूप में हो किसी आकार का आरोप करती है। उसके पीछे और कोई कारण नहीं होता है। इसीलिये इस भ्रम के सम्बन्ध में ऐसे प्रश्न निरर्थक हैं कि-"भ्रम को प्रकाशमान मानने पर वह अबोधरूप होने से लोक में यथार्थरूप से स्वीकृत बोध से विलक्षण कैसे होगा? और बोधरूप मानने पर प्रसत् आकार के साथ उसका सम्बन्ध फैसे होगा? और असत् आकार के साथ उसका सम्बन्ध होगा तो वह स्वयं भी क्यों प्रसत नहीं हो जायगा ?" ऐसे प्रश्न अविद्या-आरोपित के सम्बन्ध में अवसरोचित नहीं है। कुछ अन्य विद्वानों का यह मत है। "मीलमहं बेमि-मैं नील को जानता हूँ,-यह एक ज्ञान नहीं, किन्तु परस्पर सम्बद्ध क्रमिक तीन ज्ञान हैं। अतः इनमें कर्म-कर्तृभाव का प्रतिभास नहीं होता है।" किन्तु ऐसा मानने पर नोल शब्दोत्तर द्वितीया विभक्ति और विद् धातु के उत्तर मि' आख्याताय को उपपत्ति नहीं हो सकेगी।
अथ सुख-स्तम्भाधाकारव्यतिरिक्तसंवेदनाभावे कथं 'चक्षुरादिना मया रूपं प्रतीयते' इत्यादि प्रतीतिः ? इत्युपलभ्ये रूपादिके चक्षुरभिमुखीभूतं तत्प्रकाशत्वं विदधाति सैव बुद्धिरिति चेत् ? न, 'चक्षरादिना रूपमुपलभ्यते' इत्यादी बाह्यार्थवादिपरिकल्पिते परोक्ष रूपादौ तदाकारा प्रकाशता चक्षुरादिना जन्यत इति वासनाविशेषेण तथा व्यपदेशसंभवान, पूर्वसामग्रीतश्चक्षुरादिरूपायाकारप्रकाशता बुद्धिस्वभायोपजायत इत्येकसामग्रथधीनतया वा तथा व्यपदेशात् । दृश्यते हि प्रदीप-प्रकाशयोः समानकालयोः 'प्रदीपेनघटः प्रकाशितः' इत्येकसामग्रयधीनतया व्यपदेश इति । दर्शनात् प्रागर्थसद्भावे तु न मानमस्ति, येन तत्र प्रकाशतां चक्षुरादिकमादध्यान् । 'दर्शनमेव तत्र मानमित्ति' चेन् ? न, तेन स्वकालावधेरेवाऽर्थस्य ग्रहणात् ।
[रूपादि में चक्ष से प्रकाशमानता का आधान वासनामूलक] जेय और ज्ञान में भेद न मानने पर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि-'सुख आदि आन्तर और स्तम्भादि बाह्य प्राकारों से भिन्न यवि ज्ञान की सत्ता न मानी जायगी तो 'चक्षु आदि से मुझे रूप का ज्ञान होता है' इस प्रकार की प्रतीति कैसे हो सकेगी? यह प्रतीति होती तो है, अतः यह मानना प्रावश्यक है कि जब चक्षु रूपादि ग्राह्य पदार्थों के अभिमुख होता है तब उन में प्रकाशमानता का आधान करता है । इस प्रकार चक्षु आदि द्वारा रूपादि विषयों में जो प्रकाशमानता का आधान होता है वही बद्धि है और वह रूप आदि विषयों से भिन्न है।"-इस प्रश्न के उत्तर में बौद्धों का यह है कि बाह्यार्थवादियों को चिरकाल से यह वासना बनी हुई है कि रूपादि विषय ज्ञानभिन्न एवं परोक्ष है और चक्षु आदि से उनमें प्रकाशमानता का सम्पादन होता है। इस वासना के कारण ही वे ऐसा व्यवहार करते हैं कि चक्षु आदि से रूप को प्रतीति होती है। बौद्ध मत में भी इस प्रकार का व्यवहार होता है-उनके मतानुसार यह व्यवहार इस कारण होता है कि चक्षु-रूप मोर ज्ञान इन तीनों की कारण सामग्री का युगपत्सन्निधान होने पर ज्ञानात्मक चक्षुरूपाचाकार और प्रकाश का एक साथ उदय होता है। उक्त व्यवहार के इस प्रकार के कारण की कल्पना अन्यत्र दृष्ट भी है जैसे प्रदीप और प्रकाश का एक ही सामग्री से एककाल में संनिधान होने पर प्रदीप से घट प्रकाशित होता है इस प्रकार का व्यवहार लोकसिद्ध है।