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[ शास्त्रवासी० स्त० ५ श्लो १०
माना जायगा तो सुखादि में भी स्वरूपतः ही भेद मानना उचित होगा, न कि सन्तानमेद से | अतः जैसे स्व और पर द्वारा अनुभूयमान सुखादि में परस्पर भेद है इसी प्रकार स्व और पर से दृश्यमान
लादि में भी भेद मानना युक्तिसंगत है। यदि यह कहा जाय कि "स्व और पर के सुख में भेद इसलिये मानना आवश्यक है कि उन में देश का ऐक्य नहीं है अर्थात् उन दोनों का प्राश्रयभूत देश एक नहीं है । किन्तु स्वदृष्ट और परहृष्ट नीलादि में एकत्व माना जा सकता है क्योंकि जिस देश एक व्यक्ति नील आदि को देखता है उसी देश में अन्य व्यक्ति भी नील को देखता है।" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जिस युक्ति से स्वदृष्ट और परहृष्ट नील में ऐक्य नहीं है, उसी प्रकार स्वदृष्ट और परदृष्ट देश में भी ऐक्य नहीं है। अतः स्वदृष्ट और परहृष्ट नील को एकदेशाश्रित बताना अयुक्त है । इसलिये जैसे प्रत्येक मनुष्य में श्रवभासित होने वाला ग्राहक आाकार भिन्न है उसी प्रकार प्रत्येक पुरुष को ज्ञात होने वाला तोलादि भी परस्पर में भिन्न हो है। ग्राहक ज्ञान के साथ ही उपलभ्यमान होने के कारण ग्राहक के समान ही यह भी स्वप्रकाश है ।
में
अथ ग्राहकाकारश्चिद्रपत्वाद् वेदकः, नीलाकारस्तु जडत्वाद् ग्राह्य इति चेत् ? न अपरोक्षस्वरूपस्य चिद्रूपत्वस्य नीलादिसाधारण्यात् । 'नीलादेर परोक्ष स्वरूपमन्यस्माद् भवति, न तु बोधस्येति विशेष' इति चेत न, एकत्रापेक्षानपेक्षाऽयोगाद | एवं चान्तर्च हिराकारयोस्तुल्यत्वेऽपि - 'एकत्र ग्राहकताशक्तिः, अन्यत्र च ग्राह्यताशक्तिः ' - दति परेषां वासनामात्रम्, असिद्धे ग्राह्यग्राहकभावे तच्छक्तिकल्पनाया अयोगात्, तस्याः कार्यानुमेयत्वात् । च 'यदवभासते तज्ज्ञानम्, यथा सुखादिकम्, अवभासते व नीलादिकम्, अतो 'ज्ञानमेव' इति स्वभावहेतुः ।
[ जडरूपता और चिद्रूपता भेदक नहीं है ]
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यदि यह कहा जाय कि 'ग्राहकाकार चित्स्वरूप- प्रत्यक्षात्मकप्रकाशस्वरूप होने से ग्राहक है और नीलादि आकार जड़ यानी प्रकाश भिन्न होने से ग्राह्य है ।" तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि चिप प्रपरोक्षस्वरूप होने से नीलादि साधारण है, क्योंकि जैसे ज्ञान अपरोक्षव्यवहार का विषय होने से अपरोक्ष होता है उसी प्रकार नीलादि भी अपरोक्षव्यवहार का विषय होने से अपरोक्षस्वरूप है । यदि यह कहा जाय कि - " नीलावि की प्रपरोक्षरूपता अन्य प्रयुक्त है और बोध को अपरोक्षता सहज है यह नीलादि आकार और ग्राहक ज्ञान दोनों के बीच अन्तर है" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि बोध भी इन्द्रियादि सापेक्ष है। यदि यह कहा जाय कि-बोध अपनी उत्पत्ति में ही इन्द्रियादि की अपेक्षा करता है अपनी अपरोक्षता में नहीं करता है, अतः उसकी अपरोक्षता सहज है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि एकबोध में ही 'इन्द्रियादिसापेक्षत्व' और 'इन्द्रियादिनिरपे क्षत्व' इन परस्पर विरोधी भावाभाव का समावेश नहीं हो सकता ।
[ शक्तिभेद से आकार भेद का निरसन ]
अतः अन्य कतिपय विद्वानों का यह कथन कि- 'ज्ञान के ग्रहणात्मक आन्तराकार और नीलाद्यात्मक बाह्याकार इन दोनों में एककालिक सामग्री प्रभवता होने से समानता होने पर भी श्रान्तराकार में ग्राहकताशक्ति और बाह्याकार में ग्राह्यताशक्ति होती है । अतः इस शक्तिभेद