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स्या क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
यह कहना कि-"तत्तद्देश में तत्तवर्थ की प्राप्ति तत्तदर्थ और ततद्देश के दो ज्ञानों से उस समय होती है जब तत्तद्देश और ततदर्थ में असंसर्ग का अज्ञान होता है। इस प्रकार तत्तद्देश में तत्तदर्थ के असंसर्गज्ञान के अभाव से सहकृत तत्तद्देश और तत्तदर्थ का ज्ञान द्वय तत्तद्देश में तत्तद्देश की प्राप्ति का जनक है"-वह भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर भ्रम से भी अर्थप्राप्ति का प्रसंग आता है । जैसे-भ्रमलस्थल में भी आरोप्य और धर्मों के दो ज्ञान होते हैं और आरोष्य और धमो के मध्य प्रसंसर्ग का अज्ञान रहता है क्योंकि यह ज्ञान यवि न हो तो भ्रमस्थल में प्रवृत्ति नहीं हो सकती । दूसरी बात यह है कि 'सत्य अर्थज्ञान से अर्थ को प्राप्ति होती है और असत्यज्ञान से अर्थ प्राप्ति नहीं होती है यह व्यवस्था भी ज्ञान से भिन्न अर्थ की सत्ता न मानने पर नहीं हो सकती क्योंकि ज्ञान की सत्यता और असत्यता अर्थ को सत्यता और असत्यता पर हो निर्भर है।
[विज्ञानवाद में कुम्हार की आजीविका का भंग ] ज्ञान के भिन्न अर्थसिद्धि में चतुर्थी युक्ति है अर्थक्रियाऽयोग यानी-घटादि ज्ञान से जलानयन आदि कार्यों को सिद्धि । प्राशय यह है कि घट यदि ज्ञान से भिन्न न हो तो घट से जलानयनादि कार्य नहीं हो सकता । क्योंकि ज्ञान आन्तरवस्तु है और जलाहरण बाहर होता है । प्रत एव उस के लिये उस के साधन मत घट का बाद्यअस्तित्व मानना आवश्यक है, और उस का बाह्य अस्तित्व होने पर आन्तरज्ञान के साथ उस का ऐक्य दुर्घट है। विज्ञानवादी को ओर से यह भी कहना कि "ज्ञानाकार ही घट जलानयन का कारण होता है, वह इसलिये कि जैसे जानाकार घट की बाह्य सत्ता नहीं है ऐसे जलानयन की भी बाह्य सता नहीं है, वे सब ज्ञानाकार रूप ही है, उस के बाह्य होने की प्रतीति वासनामूलक मिथ्या प्रतीति है"-वह युक्ति संमत नहीं है क्योंकि ज्ञानाकार घट से जलानयन का समर्थन करने पर, घटज्ञानमात्र से ही जलानयन को शक्यता हो जाने से विज्ञानवादी को प्रज्ञानवश कुम्भकारादि को आजोविका के लोप करने का प्रपराध प्रसक्त होगा।
'घटप्रवृत्त्याख्यज्ञानं घटानयनारुयज्ञानजनकम्' इति पुनरथ विज्ञप्तिरिति नामान्तरकरणं प्रतारकस्यायुप्मतः । तथा, स्मृतेः-गृहीतस्य घटादेः 'स घटः' इति स्मरणात्, उपलक्षणमेतत् 'सोऽयं घटः' इति प्रत्यभिज्ञायाः, निरूपिततत्त्वमेतत् । कौतुकभावतो चुभुत्सादिरूपकौतुकयोगात् । न चासत्यर्थे तुरङ्ग-शृङ्गादाविव बुझुन्सादिकमिति ॥ १३ ।।
[अर्थ का नाम बदल देने से सत्य नहीं बदलता ] विज्ञानवादी की ओर से यदि यह कहा जाय कि-'घट प्रवृत्ति' शब्द से व्यवहत होने वाला शान 'घटानयन' शब्द से व्यवहत होने वाले ज्ञान का जनक है । अतः घर-प्रवृत्ति जसका आनयनादि शान से भिन्न नहीं है। ऐसा मानने पर कुम्भकार आदि की आजीविका के लोप को आपत्ति नहीं होगी क्योंकि इस प्रकार का ज्ञान कुम्भकार द्वारा घट कर उत्पावन-विनयादि तथा अन्य मनुष्यों द्वारा घट का क्रयण-आनयन आदि होने पर हो सम्भव है।" सो यह कथन अर्थ को ही ज्ञान का नामान्तर वेने से केवल प्रतारणामात्र है । अतः इस प्रतारणा के लिये यवि विज्ञानवादी जीवित रहना चाहता है तो उसको आयुष्मान होने का प्रार्शीवाद देने में बाह्यार्थवादी को कुछ संकोच नहीं हो सकता क्योंकि उस को प्रतारणा का यह प्रकार इतना दुर्बल है कि जिससे कोई भी बुद्धिमान मनुष्य घोखे में पड़े ऐसा सम्भव नहीं है ।