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[ शास्त्रवार्ता ० स्त० ५ दलो० १४
| स्मृति अत्यभिज्ञा और कौतुक सेवाह्यार्य सिद्धि ]
अर्य को ज्ञान से भिन्न सिद्ध करने को पांचवी युक्ति है स्मृति । आशय यह है कि पूर्व में अनुभूत घटादि का 'स घट:' इस रूप में स्मरण होता है। यदि पूर्वानुभूत घट ज्ञानात्मक होगा तो पूर्वानुभव के साथ ही वह प्रतीत हो जायगा । अतः कालान्तर में होने वाले स्मरण का यह विषय न हो सकेगा, क्योंकि ज्ञान की विषयता वस्तु का एक धर्म है जो धर्मों के प्रभाव में उपपन्न नहीं हो सकता । अतः यह मानना आवश्यक है कि पूर्वानुभूत घट यह ज्ञान से भिन्न होता है अतः ज्ञान के साय सर्वथा अतोत नहीं होता किन्तु किसी रूप में स्मरणकाल में भी विद्यमान होता है ।
स्मरणरूप पांचवी युक्ति अपने तुल्य एक अन्य युक्ति की भी सूचक है, वह है प्रत्यभिज्ञा-'सोऽयं घटः = यह घट उस (पूर्वानुभूत घट) से अभिन्न हैं'। ज्ञान से भिन्न अर्थ की सत्ता मानने पर ही यह प्रत्यभिज्ञा उपपन्न हो सकती है इस तथ्य का निरूपण पहले कर चुके हैं ।
छट्ठी युक्ति है - कौतुक का होना --कौतुक होने का अर्थ है किसी अर्थ को विशेष रूप से ज्ञात करने को प्राकांक्षा का होना यह कौतुक भी ज्ञान से भिन्न अर्थ का प्रस्तित्व मानने पर हो सम्भव है । यदि ज्ञान से भिन्न अर्थ असत् होगा तो तुरङ्गभृंग से उसमें कोई अन्तर नहीं होगा क्योंकि तुरङ्गज्ञानाकार से प्रतिरिक्त नहीं है उसी प्रकार विज्ञानवादी के मत में घटादि कोई भी अर्थ ज्ञानकार से free नहीं हो सकता । श्रतः जैसे तुरङ्गशृग आदि के विषय में मनुष्य को कोई जिज्ञासा नहीं होती उसी प्रकार अर्थ के विषय में भी जिज्ञासा न होगी ।। १३ ।।
विपक्ष में प्रदर्शित दोष का १०वीं कारिका में संक्षेप से उपसंहार किया गया है - उक्तमेव विपक्षे दोषं वत्रयति
मूलम् — ज्ञानमात्रे तु विज्ञानं ज्ञानमेवेत्यदो भवेत् ।
प्रवृत्यादि ततो न स्यात्प्रसिद्धं लोक-शास्त्रयोः ॥ १४ ॥
ज्ञानमात्रे तु जगत्यभ्युपगम्यमाने, 'विज्ञानं ज्ञानमेव घटादि' इत्यदो भवेत् इत्येतत् स्यात्, परिच्छेद्यान्तराभावात् । ततो लोक- शास्त्रयोः प्रसिद्धं मवृत्त्यादि - घटार्थि-स्वर्गार्थयत्नादि, न स्यात् उक्तरीत्या नोपपद्येत ॥ १४ ॥
कारिका का अर्थ यह है कि यदि जगत् को केवल ज्ञानात्मक माना जायगा तो घटपटादि जितने भी पदार्थ विज्ञेय हैं वे सब ज्ञानमात्र स्वरूप है यही मनुष्य के हाथ लगेगा, क्योंकि घटपटादि से भिन्न कोई प्रोर परिच्छेद्य-ज्ञेय है नहीं । अतः लोक धौर शास्त्र में प्रसिद्ध जो घटादि लौकिक पदार्थ और स्वर्गादि अलौकिक पदार्थ के लिये प्रवृत्ति आदि व्यवहार मनुष्य द्वारा होते हैं उन सब की उपपत्ति न होगी क्योंकि प्रवृत्ति आदि बाह्य प्रथों के लिये होती है। जब उसका ज्ञान से भिन यदि कोई अस्तित्व ही नहीं होगा तो बाह्य व्यवहार को उपपन्न करने का कोई श्रन्य प्रकार हो ही नहीं सकता ॥ १४ ॥
१५वीं कारिका में उक्त दोष के उत्तर में विज्ञानवादी के इस कथन कि- 'बाह्य व्यवहारों की उपपत्ति के लिये ज्ञान से भिन्न घटादि का ज्ञान होना उसे भी मान्य है किन्तु वह ज्ञान भ्रम है अत उससे बाह्यार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती'- इस कथन का निराकरण किया गया है