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। शास्त्रवाती स्त० ६ श्लोक ११
[ घट निवृत्तिरूप से कपालभंगापत्ति का उत्तर ] यदि यह प्रश्न किया जाय कि- 'कपाल और घटनिवत्ति दोनों जब अभिन्न है तब कपालरूप से उसका भंग होने पर घटनित्तिाप से भी उसका भग क्यों नहीं होता ?'-तो इसके उत्तर में प्रतिबन्दी प्रस्तुत की जा सकती है कि बौद्धमत में कपालक्षणसन्तान यह कपाल में ऐक्योपलाभ का जनक दोषरूप है और मत्तिका के ऐक्योपलम्भ का भी जनक दोषरूप है क्योंकि उस कपालक्षणसन्तानकाल में 'तदेवेदं कपालम्' यह उपलभ सन्तान के आरम्भ से अन्त तक जंसे होता है उसी प्रकार 'इदं कपालम् मदेव' इस प्रकार का भी उपलम्भ होता है। किन्तु कपालक्षण-सन्तान के भंग का कारण उपस्थित होने पर उक्त सन्तान कपाल के ऐक्योपलभ के जनक दोषरूप से हो निवस होता है किन्तु मृत्तिका के ऐक्योपलम्भ के जनक दोषरूप से निवत्त नहीं होता क्योंकि कपाल के कपालिका अथवा चूर्णरूप में उत्पन्न हो जाने पर भी मत्तिका के ऐक्य का उपलम्भ तो होता है । अतः यह प्रश्न बौद्ध मत में भी हो सकता है कि कगालक्षण-सन्तान जब कपालैक्योपलम्भजनक दोष और मदक्पोपलाभ जनक दोष उभय स्वरूप है तब प्रथम दोषरूप से उस सन्तान की नित्ति होने पर द्वितीय दोषरूप से भी उस सन्तान को निवृत्ति क्यों नहीं होती ?
[ घटनिवृत्ति मनानरूप से कपाल संतति की चिरकालस्थायिता ] यदि बौद्ध की ओर से इसका यह उत्तर दिया जाय कि 'मदैवयोपलम्भजनक दोषात्मना यह सन्तति दीर्घकालस्थायिनी होती है अतः कपालैक्योपलम्भजनक दोषरूप से उसकी निवृत्ति होने पर भी मवक्योपल भजनक दोष रूप से उसकी नित्ति नहीं होती -इस प्रकार का उत्तर घटनिवृत्ति को कपाल के भावांश और घट के अभावांश से अनुविद्ध मानने के पक्ष में भी दिया जा सकता है। अर्थात् यह कहा जा सकता है कि घटनिवत्ति के सन्तानरूप से कपालसन्तति दीर्घकालस्थायिनी होती हैं। अत एष कपालात्मकभावसन्तानरूप से उसकी निवृत्ति होने पर भी घटनिवत्ति-प्रात्मक अभावसन्तान रूप से उसकी निवृत्ति नहीं होती। कपालसन्तति को भावात्मक संतति और अभावात्मक संतति उभयस्वरूप मानने में अन्तर यह है कि उक्त सन्तति निवृत्त्यात्मना मत्तिका के साथ अखाडकत्ता का अनुभव करती है-जो घटमिति के पूरे समय में घट के मूलभूत मृत्तिका के जितने भी परिणाम होते हैं उन सभी में मद्रपता को बुद्धिरूप प्रत्यभिज्ञाविशेषात्मक है, तथा उक्त सन्तति भावात्मना सखण्डकता का अनुभव करती है क्योंकि--कपाल के आरम्भ से अन्त तक 'तदेवेदं कपालम्' इस प्रकार से तत और इदंरूप में सखण्डता को अवभासित करती हुई एक कपालात्मकता को ग्रहण करती है।
['घटनाशो नष्टः' इस व्यवहार की आपत्ति का उत्तर ] यदि यह प्रश्न किया जाय कि-'घटनाश और कपाल को अभिन्न मानने पर कपाल भंग होने पर जैसे 'घनाशात्माक कपाल नष्ट हो गया' यह व्यवहार होता है उसी प्रकार कपाल को दोडकर 'घटनाशो नष्टः' यह व्यवहार क्यों नहीं होता है ?' तो इसका उत्तर यह है कि जैसे मृद्रव्य और कपाल के अभिन्न होने पर भी कपालभंग होने पर 'कपालात्मक मृवद्रध्य नष्ट हुआ' यह व्यवहार होता है किन्तु कपाल को छोडकर 'मददव्य मष्ट हो गया इस प्रकार व्यवहार नहीं होता, उसी प्रकार 'घदनाशो नष्ट:' यह व्यवहार नहीं होता है।