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स्या० का टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
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आशय यह है कि घटनाश और कपाल में यद्यपि अभेद है किन्तु घटनावात्व और कपालश्वरूप से उसमें भेद भी है । क्योंकि यह कपालस्वरूप से ही नाश्य है, घटनाशस्वरूप से नाश्य नहीं है। जैसे कपाल और मध्य में अभेव होने पर भो मध्यत्व और कपालस्वरूप से भेद होता है और कपाल कपालत्यरूप से ही नाश्य होता है मद्रव्यत्वेन नाश्य नहीं होता। कपालात्मक मृदध्य का नाश होने पर भी 'कपालात्मक मृद्रव्य नष्ट हुआ' यह व्यवहार होता है और 'मृद्रव्य नष्ट हुआ' यह व्यवहार क्यों नहीं होता है-इस प्रश्न का उत्तर यदि बौद्धों की ओर से दिया जाय कि
कपाल का नाश कपाल और मदद्रश्य उभयरूप में ही हो जाता है किन्तु कपाल में नष्टत्व को विवक्षा कपालस्वरूप से ही होती है मृदव्यत्यरूप से नहीं होती । अत एव 'मृद्ध्य नष्ट हुम्रा' यह व्यवहार अयोग्य और 'कपालद्रध्य नष्ट हुआ यह व्यवहार योग्य माना जाता है।" तब तो इस प्रकार का उत्तर जैन की ओर से भी दिया जा सकता है कि-"घटनाश प्रौर कपाल अभिन्न होने से कपाल घटनाशत्व और कपालत्व उभयरूप से नष्ट होता है फिर भी कपाल में कपालस्वरूप से ही नष्टत्व की विवक्षा होती है, घटनाशत्यरूप से नहीं। अत एव 'धटनाशात्मक कपाल नष्ट हुआ यह व्यवहार योग्य और 'घटनाश नष्ट हुआ' यह व्यवहार अयोग्य होता है।"
यहाँ यह बात ध्यान में रखना आवश्यक है कि जैन का यह उत्तर मात्र प्रतिबन्दी के रूप में प्रस्तुत हुआ है, सिद्धान्तरूप में नहीं, क्योंकि घटनाश और कपाल के ऐक्य पक्ष में मो कपाल का कपालास्मरूप से हो नाश जैनमत में मान्य है घटनाशरूप से मान्य नहीं है ।
यत्तु-'तुच्छकरूपतयाऽनुभूयतेऽभावः' इत्युक्तम् , तदनभ्युपगमोपहतम् , उभयरूपस्यैव तस्यानुभवात् । 'अभाशंशानुभक्काले भावत्वेनाऽननुभूयमान-बं तुच्छरसमिति चेत् ? भावांशानुभवकालेऽभावत्वेनाऽननुभूयमानत्वमयि किं न तथा ? । 'शशविषाणादिवद् निःस्वभावतयाऽनुभूयमानत्वं तुच्छत्त्वं चेत् ? न, असिद्धः, तत्तुल्यत्व उत्पादादियोगितयाऽननुभवप्रसङ्गात् ।
घटादिनिवृत्ति को सदंश-असदंश उभयरूप से अनुविद्ध मानने पर जो यह दोष दिया गया है कि-'प्रभाव एकमात्र तुच्छरूप में अनुभूत होता है प्रतः उसको सदंश से अनुविद्ध नहीं माना जा सकता'-यह अनभ्युपगम से बाधित है। अर्थात् 'प्रमाव का एकमात्र तुच्छरूप में ही अनुभव होता है। ऐसा जनों का अभ्युपगम( =मत) नहीं है। किन्तु सत् और असत् उभयात्मरूप से अभाव का अनुभव जैन मत का मान्य है । प्रत उक्त अस्वीकृत अनुभव के आधार पर अभाव में सदंशानुविद्धता का निराकरण नहीं किया जा सकता ।
[ तुच्छत्व के विविध विकल्प का निराकरण ] यदि यह कहा आय कि-'अमावांश के अनुभव काल में भावस्वरूप से प्रभाव का अनुभव न होना ही अभाव को तुच्छता है तो यह भी क्यों नहीं कहा जा सकता कि भावांश के अनुभव काल में अभावत्वरूप से अनुभव न होना ही तुच्छता है और ऐसा होने पर भाव मी तुच्छ हो जायगा। यदि यह कहा जाय कि-'जैसे शशविषाण आदि निःस्वभावतया अनुभूयमान होता है उसीप्रकार अभाव भी निःस्वभावतया अनुभूयमान होता है । निःस्वभावतया अनुभूयमानता हो तुच्छता है' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अभाव का निःस्वभावतया अनुभव प्रसिद्ध है। यदि शविषाणावि के सादृश्य से