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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विजेचन ]
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ध्वंसरूपता में क्या प्रमाण है ?' तो इस का उत्तर यह है कि अङ्गारादि के होने पर काष्ठ को निवृत्ति होना ही प्रमाण है । निवृति का अर्थ है ऐसे काष्ठपरिणाम की उत्पत्ति जो काष्ठानुपलटिध नियत होती है। इस प्रकार अङ्गारादि की काष्ठध्वंसरूपता में प्रमाणरूप से यह अनुमान प्रस्तुत किया जा सकता है कि- 'अङ्गारादि का है' का ऐसा परिणाम है जिस को उत्पत्ति काण्डानुपलब्धिनियत होती है । जो भी काष्ठपरिणाम इस प्रकार का होता है वह storiesप होता है जैसे काष्ठ का चूर्ण | 'काष्ठचूर्ण की काष्ठध्वंसरूपता सर्वजन मान्य है । इसलिये उस दृष्टान्त से उक्त हेतु द्वारा श्रृंगारादि में काष्ठध्वं सरूपता की सिद्धि निर्बाध है ।
इसी प्रकार, उक्त प्रश्न का स्वरूप यदि यह हो कि 'अङ्गारादि से भिन्न द्रव्य काष्ठध्वंसरूप | यदि यह कहा जाय क्यों नहीं होता ?' तो इस का उत्तर यह है कि इसका नियामक स्वभाव fe" aurora का अनुभव होने पर भी घटनिवृति का अनुभव नहीं होता अत एव घटनिवृत्ति कपालस्वरूप नहीं हो सकती" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यदि कपाल के स्वरूपानुभव होने पर भी घटनिवृत्तिरूप में अनुभूयभान न होने से यदि घटनिवृत्ति में कपालरूपत्वाभाव माना जायगा तो कपालोत्पाद में भी कपालरूपत्वाभाव की आपत्ति होगो क्योंकि वह भी कपालस्वरूप के अनुभव होने पर भी अनुभूयमान नहीं होता ।
[ उत्पत्तिवद् निवृत्ति में घट निरूपितत्व की उपपत्ति ]
यदि यह कहा जाय कि "घटनिस को कपाल से अभिन्न मानने पर असे कपाल से अभिन उत्पत्ति में घटीयत्व - घटनिरूपितत्व नहीं होता उसी प्रकार निवृत्ति में भी घटीयत्व नहीं होगा ।"-- तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि- 'घटावुत्पन्नः कपाल:' इस व्यवहार के अनुरोध से जैसे कपाल उत्पत्ति में acrafter feद्ध होता है उसी प्रकार 'कपालः घटस्य नाश:' इस व्यवहार के अनुरोध से कपालात्मक नाश में घटप्रतियोगिकत्वरूप घटीयत्व की सिद्धि में भी कोई विरोध नहीं हो सकता । यदि घटनाश को कपाल से अत्यन्त प्रभिन्न माना जाता तभी कपाल में घटप्रतियोगित्व न होने से तदात्मक नाश में भी घटीयत्वाभाव का प्रसङ्ग होता । किन्तु घटनाश में कपाल का कथवित् भेवअभेद उभय मान्य होने से भेदांश के द्वारा उसमें घटप्रतियोगित्व होने में कोई बाधा नहीं हो सकती इसी प्रकार 'भावनिवृत्ति के प्रतिपादन के प्रसङ्ग में भाव का विधान करने से प्रर्थात् घटनिवृत्ति के प्रतिपादन के प्रसङ्ग में घटनिवृत्ति का कपाल रूप में वर्णन करना यह अप्रस्तुत कथन है' यह दोष भी निरस्त हो जाता है क्योंकि घटनाश को कपालात्मक बताने में कपाल का केवल भाषांश हो नहीं कथित होता, किन्तु उससे अतिरिक्त घटनिवृत्त्यंश भी कथित होता है। आशय यह है कि मुद्गर से प्रहृत घट से उत्पन्न होने वाला कपाल जैसे एक भावात्मक परिणाम है उसी प्रकार वह दूसरा घटाभावात्मक परिणाम भी है। अत: प्रस्तुत घटनिवृत्ति का भी कथन होने से कपाल का घटनाशात्मना वर्णन अप्रस्तुत अभिधानरूप नहीं कह सकते । इसीलिये यह दोष भी कि ध्वंस को भावान्तररूप मानने पर भावान्तर का नाश होने पर ध्वंस का भी नाश हो जाने से प्रतियोगी के उन्मज्जन की आपत्ति होगी' - निरस्त हो जाता है, क्योंकि घटनावस्वरूप कपालवध्य जब अपने कपाल मात्रात्मक रूप का परित्याग कर कपालिका अथवा चूर्ण आदि भावात्मक रूपान्तर का परिग्रह करता है उस समय भी वह अपने घठनिवृत्तिनात्मक रूप को छोड़कर घटनिवृत्ति की निवृत्यात्मक रूपान्तर को नहीं प्राप्त करता ।
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