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स्या०० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
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यह बात 'ग्राह्य और ग्राहक की सिद्धि एक दूसरे की अपेक्षा से होती है'-कह कर बतायी गई है। इस प्रकार ग्राह्याकार और ग्राहकाकार से शुन्य होने के कारण विज्ञान स्वसंविदित होकर ही प्रकाशित होता है, जैसा कि 'नीलपोतादिः' इन दो कारिकामों से कहा गया है। जिन का अर्थ इस प्रकार है
"नील-पीतादि यज्ज्ञानाद् वहिदबभासते । तद् न सत्यमतो नास्ति विज्ञानं तत्वतो बहिः ॥ १।। तदपेना च संवित्तमंता या कत रूपता । साप्यतत्यमतः संविदद्वयेति विभाव्यते ॥२॥ इति ॥ १६ ॥
[ देखिये- अने० जय० भाग-२ पृ० ८२ ] नौल-पीतादि जो अर्थ ज्ञानभिन्न के समान प्रवभासित होता है वह सत्य नहीं है अत एव विज्ञान ही बाह्यरूप में प्रतीत होता है, अलबत्ता परमार्थतः यह बाह्य नहीं है। इस प्रकार जब नीलपीतादि ग्राह्य का अभाव है तो उसकी अपेक्षा से हो संवित्ति-विज्ञान में सम्भव होने वाली ग्रहणकर्तृता प्रतात्त्विक हो जाती है, इसलिये अद्वितीय संवित ही पारमार्थिक वस्तु रूप में सिद्ध होती है ।
अकर्मकज्ञान को मान्यता के सम्बन्ध में यह प्रश्न कि यदि विज्ञान अकर्मक है तो विज्ञानबोधक क्रियापद का अकर्मक प्रयोग क्यों नहीं देखा जाता ? उत्तर २०वों कारिका में प्रशित किया
नन्धकमको न कश्चित् प्रयोगो दृष्ट इत्यत आहमूलम्-यथास्ते शेत इत्यादौ विना कर्म स एव हि ।
तथोच्यते जगत्यस्मिंस्तथा ज्ञानमपोष्यताम् ॥ २० ॥ यथा 'आस्ते 'शेते' इत्यादी प्रयोगे विना कर्म स एव आसनादिक्रियोपरक्तो देवदत्तः तथा कानुपरागेण उच्यते, न तु 'कटं करोति' इत्यादाविव कोपरागेण, उपवेशनादि क्रियाणामकर्मकत्वात् । तथा अस्मिन् जगति, ज्ञानमायकर्मकमिष्यताम् , क्रियात्वात् । न चैर्य तद्वदेवाऽकर्मकप्रयोगप्रसङ्गः 'उप्रयोगादेवाप्रयोगात्, शब्दानां विकल्पयोनिस्वेन वासनासामथ्यांत कोपसंदानेनैव 'जानाति' इत्यादिप्रयोगात् ॥ २० ॥
[ ज्ञान क्रिया का अकर्मक प्रयोग क्यों नहीं होता ? ] जैसे 'प्रास्ते शेते'-'बैठा है 'सोता है' इत्यादि प्रयोग में कर्म न होने पर भी आसन शयनादि क्रियाओं से युक्त देवदत्त को कर्मसम्बन्ध के बिना प्रतीति होती है, किन्तु 'कटं करोति' इत्यादि प्रयोगों में कर्म सम्बन्ध से कृतियुक्त क्रिया से युक्त देवदत्त प्रादि के समान नहीं होती क्योंकि प्रासन शयन आदि क्रिया अकर्मक होती है । उसो प्रकार जगत् में ज्ञान को भी अकर्मक माना जा सकता है
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१. लोके तस्याकर्मकरबेन प्रयोगाभावादेवाकर्मकत्वेनाप्रयुज्यमानत्वादिति हृदयम् ।