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[ शास्त्रवा० स्त० ५ बलो०१६
बुद्धि अन्य वस्तु को सत्ता या असत्ता के प्रति तटस्थ होतो है, क्योंकि वह अन्य वस्तु को अब ग्रहण हो नहीं कर सकती तो उसका कोई स्वरूपधर्म जैसे कि सत्त्व अथवा असत्त्व फैसे बता सकती है? क्योंकि धर्मों का ग्रहण हुये विना धर्म का ग्रहण नहीं हो सकता। ___यापि नीलादेरवयविभेदा-उभेदाभ्यामनुपपत्तिरुक्ता, माप्ययुक्ता कथञ्चिद् वैरूप्यस्वीकार दोषाभावात; अन्यथा नवाप्येतदोषानतिवृत्तेः, एकज्ञानस्यैव नानाकारतादात्म्ये प्रत्याकारं भेदप्रसंगात , नानाकाराणां चैकज्ञाननादात्म्ये नानात्वव्याहतेः। सुखादीनां ज्ञानात्मकत्वं तु प्रागेव पराहतमिति नेदानी प्रयास इति ॥१८॥
इस संदर्भ में प्रतीत होने वाले नीलपीतादि की अवयवी से भेद - अभेद दोनों पक्ष में जो अनुपपत्ति बतायी गयी थो वह भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि उसमें कश्चित् अवयवों का भेदप्रभेद विविधरूप स्वीकार करने में कोई दोष नहीं है। यदि वस्तु में कश्चिद् वैविध्य नहीं स्वीकार किया जायगा तो विज्ञानवादी के पक्ष में इस दोष की निवृत्ति नहीं हो सकतो, क्योंकि एक चित्रज्ञान का नील-पीतादि अनेक आकारों के साथ अभेद मानने पर प्राकारभेव से उसका मेव हो जायगा। विभिन्न आकारों का एक ज्ञान के साथ तादात्म्य मानने पर उन प्राकारों के अनेकत्व का व्याघात होगा। उक्त विचारों के निष्कर्ष स्वरूप बाह्यरूप से प्रतीत होने वाले अर्थों में ज्ञानाऽभेद की सिद्धि असम्भव ही हो जाती है, किन्तु उल्लेखनीय यह है कि सुखदुःखादि आन्तरवस्तु में भी ज्ञानात्मकता नहीं सिद्ध हो सकती। क्योंकि ज्ञान भिन्न हेतु से अजन्य होने के कारण हो सुखादि को ज्ञानात्मक कहा जा सकता है किन्तु सुखादि में माला-चन्वन-वनितादि ज्ञानभिन्न वस्तुओं से उत्पत्ति बताकर उक्त हेतु की असिद्धि होने से सखादि की ज्ञानात्मकता का निरास पहले ही कर दिया गया है, अतः इस समय उसके लिये अधिक प्रयास आवश्यक नहीं है ।।१८॥
१९वों कारिका में इस सम्बन्ध में विज्ञानवादो का एक अन्य अभिप्राय प्रदर्शित किया गया हैपरः स्वाभिप्रायमाहमूलम्-प्रकाशैकस्वभावं हि विज्ञानं तत्त्वतो मतम् ।
अकर्मकं तथा चैतत्स्वयमेव प्रकाशते ॥१९॥ प्रकाशैकस्वभावं हि-गगनतलवृत्त्यालोककल्पम्' मतम् इष्टम्, तत्त्वतः परमार्थतः अकर्मकम्-विचाराक्षमत्वेन ग्राह्यस्याभाशत् तदपेक्षाप्रकल्पितग्राहकवाभावात् कत-कर्मभारोपरागरहितम् । तदुक्तम्-"परस्परापेक्षया तयोव्यवस्थानात्" इति । तथा च ग्राह्य-ग्राहकाकारासंस्पर्श च एतत्-विज्ञानम् , स्वयमेव स्वसंविदितमेव प्रकाशते । तदुक्तम्
[ अकर्मक होने से विज्ञान का ग्राह्य कोई नहीं है-पूर्व पक्ष ] विज्ञानवादी का आशय यह है कि विज्ञान आकाशतल में विद्यमान प्रालोक के समान केवल प्रकाशस्वभाव है । अतः वह परमार्थतः अकर्मक है क्योंकि विचार करने पर ग्राह्य नहीं सिद्ध होता । ग्राह्य की अपेक्षा से हो ग्राहकत्व होता है अतः ग्राह्य का प्रभाव होने से ग्राहक भी नहीं हो सकता। अतः यह कर्तृ-कर्म भाव के सम्बन्ध से शून्य है-न वह ग्रहण का कर्ता है न वह ग्रहण का कर्म है।