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[ शास्त्रवार्ता ० स्त० ६ श्लो० ३७
नहीं है । अतः ध्वंस का प्रतियोगी यह ध्वंस का अप्रतियोगी भी होना सम्भवित होने से नित्यानित्यरूप एक वस्तु की सिद्धि में कोई बाधा नहीं है ।
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[ न च घटपटौ न स्त......... [] जैनों के इस प्रतिपादन के बीच में वैशेषिक की ओर से यदि यह कहा जाय कि एक घट के आश्रय देश में द्वित्वरूप से घटाभाव का दृष्टान्त लेकर उपरोक्त रीति से किसी एक ध्वंसप्रतियोगित्व के आश्रय में रूपान्तर- ध्वंसप्रतियोगितात्व रूप से ध्वंसप्रतियोगित्व का अभाव नहीं सिद्ध किया जा सकता, क्योंकि उक्त दृष्टान्त हो असिद्ध । जैसे, घट या पट के आश्रय में होने वाली 'घटपटौ न स्तः' यह प्रतीति घट के आश्रय में पटाभावविषयक और पट के में घटrera farयक एवं घटपट दोनों के अनाश्रय देश में घटाभाव और पटरभाव उभयविषयक होती है । अतः द्वित्वरूप से घटपटोभयाभाव प्रसिद्ध है । इसी प्रकार तद्धट के आश्रय देश में 'घ न स्तः' यह प्रतीति तव्टान्घटाभाव को करती है और भाव को विषय करती है अतः द्वित्वरूप से घटाभाव भी असिद्ध है ।
दुर्घट
जैन:-- [न च एकैकाभावधियो०.... ] वैशेषिकों के इस कथन के बीच में अगर जैन यह कहें कि ऐसा मानने पर १. एक एक अभाव की बुद्धि में 'द्वौ न स्तः' इस उभयाभाव को बुद्धि का वैलक्षण्प नहीं होगा, क्योंकि जैसे 'घटो नास्ति' 'पटो नास्ति' ये बुद्धि घटाना वत्य-पटाभावस्य रूप से घटाभाव और पटाभाव को विषय करती है उसीप्रकार 'द्वौ न स्तः' यह बुद्धि भी उन्हीं रूपों से उन उन अभाव को विषय करती हैं । २. उपरांत, 'द्वौ न स्तः' इन शब्द से एकेक प्रभाव का निश्चय होने पर भी एक एक अभाव के संशय की आपत्ति होगी क्योंकि उक्त शब्दजन्य निश्चय एक एक प्रभाव को घटाद्यभावत्वरूप से विषय न करके द्वित्ववत्प्रतियोगि काभावस्वरूप से विषय करता है । ३. एवं घाव पाभाव का किसी एक रूप से अनुगमन होने से घटाभाव-पटाभाव की 'द्वौ न स्तः इस रूप में अनुगताकार प्रतीति मी नहीं होगी ।
[ द्वित्वाधिकरण प्रतियोगित्व ०... का अवतरण ] वैशेषिक की ओर से यदि यह कहा जाय कि १ “उक्त प्रतोति प्रत्यक्ष या शब्दबोध हो, सभी द्वित्वाधिकरणप्रतियोगिकत्वमात्र रूप से एक विषयक होती है श्रतः एक एक अभावज्ञान और 'द्वा न स्तः' इन ज्ञान का वैलक्षण्य नहीं हो सकता, क्योंकि दोनों ज्ञान भिन्न-भिन्न रूप से एक एक अभाव को विषय करते २. तथा ' न स्त:' इन शब्द से एक एक असाय का निश्चय होने पर भी एक-एक प्रभाव के संशय को अप भी नहीं दी जा सकती। क्योंकि 'द्वौ न स्तः' इन सभी प्रतीतियों के द्वित्वाधिकरण प्रतियोगित्वेन एक एक अभावविषयक होने से उक्त सभी प्रतीतिकाल में एक एक अभाव का संशय इष्ट है । ३. द्वित्वाधिकरणप्रतियोगिकत्वरूप से प्रत्येक प्रभाव का अनुगम हो जाने से प्रत्येक अभाव को विषय करने वाले 'द्वौ न स्तः' इस प्रतीति के अनुगताकारत्व की अनुपपत्ति भी नहीं हो सकती है ।
[ दित्वाधिकरणप्रतियोगित्व.... ] जंनः वैशेषिकों का यह तीनों कथन ठीक नहीं है क्योंकि'द्वौ न स्तः' यह प्रतोति यदि द्वित्वाधिकरण प्रतियोगित्व रूप से अभावविषयक होगी तो यस्किवित् एक-एक घटपट व्यक्ति से शून्य और अन्य यत्किश्वित् घट-पट यह व्यक्ति द्वय के आश्रयीभूत देश में भी 'घटपटौ न स्तः' इस प्रतीति की प्रापत्ति होगी ; क्योंकि - 'उस देश में मो द्वित्व का अधिकरण जो तद्देश में विद्यमान घट-पटव्यक्तिद्वय है तत्प्रतियोगिक अभाव विद्यमान है ।
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