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स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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इति धीरेकवरयन्याभावावगाहिनी, तदितस्त्रैव चोभयावगाहिनी । न चैकैकाभाववियो 'द्वौ न स्तः' इति धियोऽत्रै लक्षण्यम् , शब्दादिना 'द्रौ न स्तः' इति निश्चयेऽप्येकैकामारसंशयापत्तिः विषयानुगर्म विनाऽनुगताकारप्रत्ययाऽयोगश्च । द्वित्वाधिकरणप्रतियोगित्वमात्रावगाहित्वे च तादृशद्वित्राधिकरणव्यक्तिविशेषविरहिणी तथाविधोमयशालिनि 'तादृशौ द्वौ न स्तः' इति प्रत्ययापत्तिः, सामानाधिकरण्याद्यमावेऽपि प्रतीतेरनुगताकारत्वाच न तस्या द्वित्वविशेष्यतावच्छेदकावच्छिमात्वसंसगण द्वित्वसमानाधिकरणविशिष्टाभावावगाहित्वम्, घटत्व पटत्याद्यन्यतरावच्छिनप्रतिययोगिताकामावविषयत्वं चाः द्वित्वाधिकरणयोरेव प्रतियोगिल्लोन्लेखात स्वपर्याप्त्यधिकरणसंबन्धेन द्वित्ताभावविषयत्वमपि न युक्तिमिति वाच्यम्, द्वित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वेन घटादिमति पटत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकामावादिविषयतया, तत्तद्घटादिमति च तत्तद्घटान्यघटत्वावछिन्नाभावादिविषयतयोपपत्तेरिति वाच्यम्, अनन्ता भावे द्वित्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्वकम्पने गौरवात एकाभावसिद्धेः । एवं च घटस्य घटत्वावच्छिन्नध्वंसप्रतियोगित्वेऽपि द्रव्यस्वावच्छिन्नध्वंसाऽपतियोगित्वमुपपत्तिमत् । तदुक्तम्-"तद्भावाऽव्ययं नित्यम्" [त००५-३०] इतिः इति नेत!
न, तद्भावेन व्ययस्याऽप्रसिद्वौ तदभावस्य वक्तुमशक्यत्वात् , असतोऽनिषेधात , स्वीकृतं चैतदन्यैरपि-“असओ नस्थि निसेहो" [वि० आ० भा० १५७४ ] इत्यादिना ।
[ वस्तु नित्यानित्य उभयरूप कैसे ? वैशेषिकों का पूर्वपक्ष ] इस प्रसंग में वैशेषिक प्रादि का यह कहना है कि --
'सोऽयम इस प्रत्यभिज्ञात्मक प्रतीति से तत्ताविशिष्ट और इचन्तादिविशिष्ट में ऐषध से स्थैर्य सिद्ध होने पर भी नित्यानित्यरूप एक वरतु को सिद्धि नहीं हो सकतो क्योंकि घटप्रतियोमित्यरूप से ध्वंस के अनुभव के समय समानसामग्री से वेद्य होने के कारण घट में ध्वंस-प्रतियोगिकत्व रूप अनित्यत्व का अनुभव होने पर भी नित्यश्व का अनुभव नहीं होता, अतः प्रनित्य वस्तु को नित्यता में कोई प्रमाण नहीं है, बल्कि धंस प्रतियोगिस्वरूप अनित्यत्ष और ध्वंसाऽप्रतियोगित्वरूप नित्यत्व में विरोध है । अतः एक के साथ दूसरे का रह्ना सम्भव नहीं हो सकता।
[प्रय प्रतियोगिसत्वमात्रेण....... ] इस पर यदि जैनों की ओर से कहा जाय कि प्रतियोगी की सत्ता मात्र से अभाव का विरोध नहीं होता किन्तु प्रतियोगितावच्छेदकविशिष्ट प्रतियोगी को सत्ता के साथ अभाव का विरोध होता है, इसीलिये तो एक घर के आश्रय देश में द्वित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताक घटाभाव रहता है. क्योंकि-ऐसे देश में 'घटौ न स्तः' 'द्वौ न स्तः' यह प्रतीति सर्वसम्मत है। इसलिये द्रव्यत्वावच्छिन्न वंसप्रतियोगित्वाभाधरूप नित्यत्व का प्रतियोगी ध्वंसप्रतियोगित्व चटत्वावछिन्न ध्वंसप्रतियोगित्यरूप से घट में यद्यपि रहता है, फिर भी ध्यत्वावच्छिन्न ध्वंसमातियोगितास्वरूप से ध्वंसप्रतियोगित्व घट में न रहने से उस में उक्त प्रभाव के रहने में कोई विरोध