________________
i
स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
प्रकृतमेव भावयन्नाह -
मूलम् — घटादिज्ञानमित्यादिसंवित्ते स्तत्प्रवृत्तितः । प्राप्तेरर्थक्रियायोगात्स्मृतेः कौतुकभावतः ॥ १३॥
५
+
घटादिज्ञानमित्यादिसंवित्तेः-‘घटमहं जानामि इत्या॒द्यन्तर्बहिमु खसांशानुभवात् विमुखज्ञानमात्रस्यावेदनात्, अनुभवापलापे निराकारस्यैव दर्शनस्य सिद्धेः, आकारव्यवस्थायाः कल्पनयोपपत्तेरतिंप्रसंगात् न ज्ञानमात्रं जगत् । तथा तत्प्रवृत्तित:= :- तंत्र घटादावेव प्रवृत्तेः, बहिरर्थाभावे तु वहिष्प्रवृत्तिर्न स्यात् । तथा प्राप्तः = घटज्ञानात् प्रवृत्तस्य घटोपलम्भात् । एतेन 'घटाकारज्ञानस्य स्वभावतो घटप्रवृत्तिहेतुत्वात् शुक्तौ रजतज्ञानादिव चहिष्प्रवृत्तिः' इति निरस्तम् प्रवृतिसंवादाऽसंवाद निर्वाहार्थं प्राप्याऽप्राप्य घटविषयकज्ञान भेद स्वीकारस्यावश्यक स्वात् । अथ प्राप्तिरपि प्रवृत्तस्य सतो घटोपलम्भ एत्र, तथा च घटप्राप्तौ सत्यघटाकारज्ञानस्य हेतुत्वाद् न दोष इति चेत् ? न, सत्यघटज्ञानोत्तरं घटभंगेऽपि तत्प्राप्तेः प्रसङ्गात् मम स्वर्थाऽसंनिधानाधीनत्वात् तदप्राप्तेः । न च तवापि घटाभावज्ञानात् तद्ाप्तिः, तदज्ञानेऽपि तत्र प्राप्तेरयोगात् । न च घटाकाशानमात्रात् तत्प्राप्तिः, भूतले घटज्ञानात पर्वते तत्प्राप्तिप्रसंगात् । न च विशिष्टज्ञानं तवास्ति । न चागृहीतासंसर्गकज्ञानद्वयं प्रापकम्, भ्रमादपि प्राप्तिप्रसंगात् सत्यत्वस्य चार्थाभावेऽव्यवस्थानात् । तथा, अर्थक्रियायोगात् जलानयनादिसिद्धेः । यदि च ज्ञानाकार एव घटो जलानयनसमर्थः स्यात् तदा घटं बुद्ध्यैव जनो जलमानयेत् इति हता देवानांप्रियेण कुम्भकारादीनामाजीविका !
2
[ जगत् केवल ज्ञानमात्र नहीं है ]
विश्व केवल ज्ञानस्वरूप ही नहीं है किन्तु ज्ञान से पृथक् उसका अस्तित्व है। यह विषय कई युक्तियों से प्रमाणित होता है। जैसे एक युक्ति है 'घटमहं जानामि' इस प्रकार घटादिज्ञान का संवेदन | अर्थात् घटज्ञान का अन्तर्मुख यानी अन्तर और बाह्य इन दो अंशों में अनुभव । आशय यह है कि घटज्ञान का जो अनुभव होता है वह 'ज्ञान' इस आन्तर अंश को और 'घट' इस बाह्यांश को विषय करता है । विषयमुक्त ज्ञानमात्र का ग्रहण उससे नहीं होता । अत एव इस अनुभव के अनुरोध से यह मानना आवश्यक है कि अर्थ ज्ञान से भिन्न होता है । श्रत एव ज्ञान के अनुभव में अर्थ ज्ञान के स्वरूप में ही निमग्न होकर अवभासित नहीं होता किन्तु उससे पृथक प्रतीत होता है। यदि इस अनुभव का अपलाप कर दिया जायगा प्रर्थात् इस अनुभव को बाह्यांश में भ्रमात्मक मान लिया जायगा तो निराकार हो ज्ञान की सिद्धि होगी । जब ज्ञान निराकार होगा तो उसमें आकार की व्यवस्था को कल्पनामूलक मानना होगा जिसका परिणाम यह होगा कि ज्ञान में नियताकारतान होकर सर्वाकारता का अतिप्रसङ्ग होगा क्योंकि स्वभावतः निराकार ज्ञान में नियताकार की ही यवस्था हो इसका कोई मूल नहीं हो सकता ।